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________________ सागारधर्मामृत स प्रोषधोपवासो यच्चतुष्पा यथागमम् । साम्यसंस्कारदाढर्याय चतुर्भुक्त्युज्झनं सदा ॥३४ उपवासाक्षमै कार्योऽनुपवासस्तदक्षमैः । आचाम्लनिर्विकृत्यादि शक्त्या हि श्रेयसे तपः ॥३५ जैसे बार बार गिरनेवाली जलकी बूंद पत्थरको गड्ढा विशिष्ट नहीं कर देती है क्या ? अर्थात् कर ही देती है। भावार्थ-आकुलता-सहित कठोर अन्तःकरणवाले संसारियोंके लिए यद्यपि सामायिकका धारण करना बहुत कठिन है, तो भी वह अभ्यासके द्वारा सिद्ध किया जा सकता है। जैसे-पत्थरके ऊपर पुनः पुनः पड़नेवाली जलकी बूंद पत्थरमें भी गड्ढा कर देती है वैसे ही पुनः पुनः किये गये अभ्याससे आत्मामें विषय और कषायोंकी मन्दता होकर सामायिकव्रतको सिद्धि होती है । ३२॥ सामायिकके फलका इच्छुक श्रावक इस सामायिकव्रतमें भी स्मृतिका भूल जाना काय, वचन तथा मनकी पाप कार्यों में प्रवृत्ति करना और अनादर करना इन पांच अतिचारोंको छोड़े। विशेषार्थ-स्मत्यनुपस्थापन, वचनदुःप्रणिधान, कायदुःप्रणिधान, मनोदुःप्रणिधान और अनादर ये पाँच सामायिक शिक्षाव्रतके अतिचार हैं। सामायिककी पूर्तिका इच्छुक श्रावक इन पाँच अतिचारोंको छोड़े। इनका विवरण इस प्रकार है-स्मृत्यनुपस्थान-चित्तको एकाग्रताका न होना स्मृत्यनुपस्थापन है। अथवा मैंने सामायिक किया है या नहीं किया है, मुझे सामायिक करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, इस प्रकार चित्तकी अनेकाग्रताको भी स्मृत्यनुपस्थान कहते हैं। कायदृष्टप्रणिधान-सामायिक करते हुए भो शरीरसे सावध कर्ममें प्रवृत्त होना कायदुष्टप्रणिधान है। अर्थात् सामायिक करते समय हाथ पैर आदि शरीरके अवयवोंको स्थिर नहीं रखना कायदुष्टप्रणिधान है। वचनदुष्टप्रणिधान-सामायिकपाठ या सामायिकमंत्रके उच्चारणके समय वर्णोके संस्कारसे उत्पन्न होनेवाला अर्थबोध नहीं होना अथवा सामायिक व मंत्रके पाठके उच्चारणमें चपलताका होना वचनदुष्टप्रणिधान नामका अतिचार है। मनोदुष्टप्रणिधानसामायिक करते समय क्रोध, लोभ, अभिमान और ईर्ष्या वगैरह मनोविकारोंका उत्पन्न होना या कार्यके व्यासंगसे संभ्रम उत्पन्न होना मनोदुष्टप्रणिधान है। अनादर-सामायिकमें उत्साहका नहीं रहना, निश्चित समय पर सामायिकका नहीं करना अथवा यद्वा तद्वा सामायिकके अनन्तर ही अतिशोघ्र भोजनादिमें लग जाना अनादर है ॥३३॥ जो सामायिकके संस्कारकी दृढ़ताके लिये चारों ही पर्व तिथियोंमें आगमके अनुसार जीवन पर्यन्त चारों प्रकारके आहारोंका त्याग करना वह प्रोषधोपवास कहलाता है। विशेषार्थसामायिकके संस्कारोंको दढ़ करनेके लिये अर्थात् परीषहों और उपसर्गोंके आनेपर समताभावसे पतन नहीं हो इस हेतुसे चारों हो पर्वोमें शास्त्रानुसार जोवन भरके लिये जो चार प्रकारके आहारोंका त्याग किया जाता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं । एक दिन में दो भुक्ति होती हैं, यह संमत मार्ग है। प्रोषधोपवास धारणा और पारणापूर्वक होता है। अतः प्रत्येक मासके चार पोंमें प्रोषधोपवास करनेवाला सप्तमो और त्रयोदशीको प्रोषधोपवासकी धारणामें एक भुक्तिका त्याग करता है और एक भुक्तिका ग्रहण करता है। अष्टमी और चतुर्दशीके दिन दोनों ही भुक्तियोंका त्याग करता है। और नवमो तथा पूर्णिमाको पारण करते हुए एक ही भुक्तिका ग्रहण करता है तथा एक भुक्तिका त्याग करता है। इस प्रकार अशन, स्वाद्य, खाद्य और पेय इन चारों प्रकारके आहारोंको चतुभुक्तियोंके त्यागको प्रोषधोपवास कहते हैं ! तात्पर्य यह है कि प्रोषधोपवासके करनेसे परीषह और उपसर्गोंके सहन करनेका अभ्यास होता है और उससे समताभावका उत्कर्ष तथा दृढ़ीकरण होता है ॥३४॥ उपवास करने में असमर्थ श्रावकोंके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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