SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ श्राक्काचास्तंबह शिक्षाब्रतानि देशावकाशिकादीनि संश्रयेत् । श्रुतिचक्षुस्तानि शिक्षाप्रधानानि व्रतानि हि ॥२४ दिग्वतपरिमितदेशविभागेऽवस्थालमस्ति मितसमयम् । यत्र निराहुदेशावकाशिकं तद्वतं तज्ज्ञाः।।२५ स्थास्यामोदमिदं याववियत्कालमिहास्पदे । इति संकल्प्य सन्तुष्टस्तिष्ठन्देशावकाशिकी ॥२६ आजीविका करना । असतीपोष-हिंसक प्राणियोंका पालन पोषण करना और किसी प्रकारके भाड़े की उत्पत्तिके लिए दास और दासियोंका पोषण करना। सरःशोष-अनाज बोनेके लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना। दवप्रद-घास आदि जलानेके लिए वनमें आग लगा देना। इसके दो भेद हैं-सूखे घासके जला देनेसे उस जगह अच्छी उपज होती है और अच्छा घास पैदा होता है, इस भावनासे आग लगवाना दवप्रद कहलाता है। विषवाणिज्य-प्राणघातक विषका व्यापार करना । लाक्षावाणिज्य-लाखके व्यापारको लाक्षावाणिज्य कहते हैं। जब वृक्षसे लाख निकाली जाती है तब जिन जोवोंके शरीरसे यह लाख बनती है उनके आश्रित रहनेवाले असंख्य त्रस जीवोंका घात हो जाता है। लाखके कीड़े जिन छोटे-छोटे पत्तोंपर बैठते हैं, उनमें जो सूक्ष्म त्रसजीव होते हैं, उनके घात बिना लाख पैदा ही नहीं होती। इसी प्रकार मनसिल, गूगल तथा धायके फूल आदिका व्यापार भी लाक्षावाणिज्यमें गभित हैं । दन्तवाणिज्य-जहाँ हाथी वगैरह रहते हैं उस जगह व्यापार करनेके लिए भीलादिकोंको द्रव्य देकर दाँत आदि खरीदना। केश-वाणिज्य-केश-ऊनका व्यापार करना। रसवाणिज्य-मक्खन. मध चरबी और मद्य आदिका व्यापार करना ।।२१-२३॥ श्रावक श्रुतज्ञानरूपी नेत्रवाला होता हुआ देशावकाशिक आदिक शिक्षाव्रतोंको ग्रहण करे क्योंकि वे व्रत शिक्षाप्रधान होते हैं। भावार्थ-जिनव्रतोंसे सर्व पापोंके त्याग या मुनिव्रतको शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षावत कहते हैं। उनके पालनसे अणुव्रतोंमें विशेष निर्मलता आती है और उनकी रक्षा होती है; इसलिए शिक्षाप्रधान वा व्रतपरिरक्षक होनेके कारण इन देशावकाशिक आदिको ग्रहण करना चाहिए। शिक्षाव्रतके देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग ये चार भेद हैं। प्रातःकालके सामायिकके बाद देशावकाशिक व्रतमें दिन भरके लिए जो क्षेत्रको मर्यादा की जाती है उससे सर्व पापोंके त्यागकी शिक्षा मिलता है। सामायिक करते समय सामायिकके काल तक समताभाव धारण करनेसे सर्व पापोंका कालकृत त्याग हो जाता है। प्रोषधोपवास व्रतमें प्रोषधोपवास व्रतके काल तक सर्व आरम्भ आदिका त्याग कर देनेसे सर्व पापोंके त्यागकी शिक्षा मिलती है। और अतिथिसंविभाग व्रतके पालनेसे ( अतिथियोंका वैयावृत्य करनेसे ) उनका आदर्श अपने जोवनमें उतर सकता है। इसलिए सर्व पापोंके त्यागको शिक्षा मिलती है ॥२४॥ जिस व्रतमें दिग्वतमें सीमित क्षेत्रके किसी अंशमें किसी नियमित समय तक रहना होता है, उस व्रतको उस व्रतकी निरुक्तिके जानकार व्यक्ति देशावकाशिक व्रत कहते हैं ॥२५।। घर, पर्वत तथा ग्राम आदि निश्चित स्थानकी मर्यादा करके सन्तुष्ट होता हुआ इस स्थानमें इतने समय तक निवास करूँगा इस प्रकारसे संकल्प या नियमको करके स्थित रहनेवाला श्रावक देशावकाशिक कहलाता है। भावार्थदिग्व्रतमें जीवन भरके लिए सोमित आवागमनके क्षेत्रकी मर्यादाको नियत काल तक घटाना देशावकाशिक व्रत कहलाता है। अर्थात् दिग्व्रतमें परिमाण किए हुए क्षेत्रके किसी एकदेशमें रहना देशावकाशिक व्रत कहलाता है । सीमाके बाहर आवागमनकी तृष्णा नहीं करके किसी पर्वत, गाँव तथा नगर आदिको मर्यादा करके मर्यादित क्षेत्रके भीतर मर्यादित काल तक संतोषपूर्वक रहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy