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________________ सागारधर्मामृत बतयेत्खरकर्मात्र मलान् पञ्चदश त्यजेत् । वृत्ति वनाग्न्यनःस्फोटभाटकैयन्त्रपीडनम् ॥२१ निर्लाञ्छनासतीपोषो सरःशोषं दवप्रदाम् । विषलाक्षादन्तकेशरसवाणिज्यमङ्गिरुक ॥२२ इति केचिन्न तच्चारु लोके सावद्यकर्मणाम् । अगण्यत्वात्प्रणेयं वा तदप्यतिजडान् प्रति ॥२३ सचित्तसम्बद्ध-अज्ञान व असावधानीके कारण वृक्षमें लगी हुई गोंदका खाना और पके फलोंके भीतरके बीजोंका खा जाना सचित्तसम्बद्ध नामका अतिचार कहलाता है। आम और खजूर आदि पके फलों आदिके खाते समय सचित्तसम्बद्ध नामका अतिचार होता है। सचित्तमम्मिश्र-जिस पदार्थमें सचित्त वनस्पति इस प्रकारसे मिल गई हो कि जिसको किसी प्रकारसे अलग नहीं किया जा सकता हो, प्रमाद वा अज्ञानसे उस चीजका खानेमें आ जाना अथवा सचित्तस मिली हुई वस्तुको सचित्त सम्मिश्र कहते हैं । दुष्पक्व-जो अधिक पक गया हो, अधजला हो गया हो अथवा कम पका हो उसको दुष्पक्व कहते हैं । ऐसे पदार्थोंका खाना दुष्पक्व नामका अतिचार है। उसके खानेमें रागभावकी अधिकता रहती है। अभिषव-खीर आदिक पौष्टिक पदार्थोंका खाना अभिषव नामका अतिचार है । क्योंकि ये राग व पुष्टिकी अभिलाषासे अधिक खाये जाते है। इन सचित्त आदिके भक्षणसे इन्द्रियोंका मद बढ़ता है, वातादि रोगोंका प्रकोप होता है और दवा खाना पड़ती है । इसलिये कुछ पापोंका अंश भी लगता है अतएव व्रतियोंको इनका त्याग कर देना चाहिये ।।२०।। __ श्रावक प्राणिपीडाजनक व्यापारको छोड़े तथा इस खरकम व्रतमें वन, अग्नि, गाड़ी, स्फोट और भाटक द्वारा आजीविका या व्यापारको, यन्त्रपीडनको, निर्लाञ्छनकर्म तथा असतीपोषको, सरःशोषको, दवाग्निको तथा प्राणिपीडाकारक विष, लाक्षा, दन्त, केश तथा रसके व्यापारको इस प्रकार पन्द्रह अतिचारोंको छोड़े। इस प्रकार कोई श्वेताम्बर आचार्य कहते हैं । परन्तु संसारमें पापजनक कार्योंके अगण्य होनेसे उनका वह कहना ठीक नहीं है। अथवा अत्यन्तमूढ़ बुद्धिवाले पुरुषोंके प्रति वह खरकर्मव्रत भी प्रतिपादन करने योग्य है। विशेषार्थ-प्राणिपीडाजनक व्यापार को खरकर्म ( क्रूरकर्म कहते हैं। इनका त्याग करना चाहिये। इनके त्यागका नाम खरकर्मभोगोपभोगत्यागवत कहलाता है। वनजीविका, अग्निजीविका, अनोजीविका, स्फोटजीविका, भाटकजोविका, यन्त्रपीडन, निर्लाञ्छनकर्म, असतोपोष, सरःशोष, दवप्रद, विषवाणिज्य लाक्षावाणिज्य, दन्तवाणिज्य, केशवाणिज्य और रसवाणिज्य ये पन्द्रह खरकर्मत्यागवतके अतिचार हैं। इस खरकर्मका त्याग करना चाहिए। यह किसी श्वेताम्बर आचार्यका कथन है, परन्तु पापरूप आजोविकाओंकी गिनती नहीं की जा सकती। इसलिए १५ होके त्यागका उपदेश देना ठीक नहीं है। हाँ ! जो अत्यन्त मन्दबुद्धि हैं उनके लिए इतने खरकर्म बताकर त्याग करना बुरा नहीं है। इनका विवरण इस प्रकार है । वनजीविका-स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि वनस्पतिका बेचना अथवा गेहूँ आदिक अनाजोंका पीट कूटकर व्यापार करना। अग्निजोविका-अग्निद्वारा कोयला व लहारको चोजें वगैरह बनाकर व्यापार करना। अनोजीविकास्वयं गाड़ी रथ तथा उसके चका वगैरह बनाना अथवा दूसरासे बनवाना । गाड़ो जोतनेका व्यापार स्वयं करना तथा दूसरोंसे कराकर आजीविका करना और गाड़ी आदिके बेचनेका व्यापार करना। स्फोटजीविका-पटाखा व आतिशबाजी आदि बारूदकी चीजोंसे आजीविका करना। भाटकजीविका-गाड़ो, घोड़ा आदिसे बोझा ढोकर भाडेकी आजीविका करना । यन्त्रपोड़न-कोल्हू चलाना, तिल आदिको कोल्हमें पिलवाना अथवा तिल वगैरह देकर उसके बदलेमें तेल लेना। निर्लाञ्छन-बैल और भंस आदिके बधिया करना, नाक और मुष्क आदि अवयवोंके छेदनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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