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________________ ५० श्रावकाचार-संग्रह नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्जयेत् । आजन्म तद्भुजां ह्यल्पं, फलं घातश्च भूयसाम् ॥१६ अनन्तकायाः सर्वेऽपि सदा हेया दयापरैः । यदेकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ॥१७ आमगोरससम्पृक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत् ॥१८ भोगोपभोगकशनात् कृशीकृतधनस्पृहः । धनाय कोट्टपालादिक्रियाः क्रूराः करोति कः ॥१९ सचित्तं तेन सम्बद्धं सम्मिश्रं तेन भोजनम् । दुष्पक्वमप्यभिषवं भुञ्जानोऽत्येति तद्वतम् ॥२० धार्मिक श्रावक नाली, सूरण, कालिंदा और द्रोणपुष्प आदि सम्पूर्ण पदार्थोंको जीवन पर्यन्तके लिये छोड़ देवे, क्योंकि इन नाली और सूरण आदि खाने वालोंके उन पदार्थोके खानेम फल थोड़ा और घात बहुतसे जीवोंका होता है। भावार्थ-नालो (पोलीभाजी), सूरण, तरबूज, द्रोणपुष्प, मूली, अदर ख, नीमके फूल, केतकीके फूल आदिके खानेमें जिह्वास्वाद रूप सुख तो थोड़ा होता है किन्तु घात बहतसे एकेन्द्रिय प्राणियोंका होता है। इसलिये धामिकको इनके भक्षणका त्याग करना चाहिये ।।१६।। दयालु श्रावकोंक द्वारा सर्वदाके लिये सब ही साधारण वनस्पति त्याग दी जानी चाहिये क्योंकि एक भी उस साधारण वनस्पतिको मारनेके लिये प्रवृत्त व्यक्ति अनन्तजीवोंको मारता है। विशेषार्थ-धर्म दयाप्रधान है। इसलिये दयालु होकर अनन्त कायवाली साधारण वनस्पतिके भक्षणका त्याग सदैवके लिये कर देना चाहिये। क्योंकि भक्षण-द्वारा एक साधारण वनस्पतिके जीवको मारनेके लिये प्रवृत्त व्यक्ति उसमें रहने वाले अनन्त जीवोंकी हिंसाका भागी होता है। जिस वनस्पतिके शरीर में अनन्त साधारण वनस्पति प्राणी रहते हैं उसका अनन्तकाय कहते हैं। अनन्तकाय वनस्पतिके सात भेद हैं--मूलज, अग्रज, पर्वज, कन्दज. स्कन्धज, बीजज और सम्मर्छनज । अदरक और हल्दी वगैरह मूलज हैं । आयिका ( एक प्रकार ) की ककड़ो इत्यादि अग्रज है । देवनाल, ईख और वेत आदि गाँठोसे उत्पन्न होनेवाली वनस्पति पर्वज हैं। प्याज और मुरण वगैरह कदज हैं। सल्लाकी, कटेरी और पलाश आदि स्कन्धज हैं। धान और गेहूँ वगैरह वोजज हैं। तथा इधर-उधरके पुद्गलोकं सम्मिश्रणसे होनेवाली वनस्पांत सम्मूर्छनज हैं ।।१७।। कच्चे दूध मिश्रित वा कच्चे दूधसे बनाये गये दही और मठासे मिश्रित द्विदलको, बहुधा पुराने द्विदलको वर्षा ऋतुमें विना दले द्विदलको तथा इस वर्षा ऋतुमें पत्तोक शाकको भी नहीं खाना चाहिये । भावार्थ-कच्चे दूधकं साथ तथा कच्चे दूधसे तैयार हुए दही व मही ( छाँछ ) के साथ उड़द, मूंग, चना, मटर आदिकी दालको वस्तुओंका, प्रायः कर इन दाल वाले पुराने धान्योंको, वर्षा ऋतु में बिना दले किसी भी द्विदल धान्यको और वर्षा ऋतुम पत्ते वाले शाकको भी नहीं खाना चाहिये ।।१८।। भोगोपभोगको कम करनेके कारण धनकी आकांक्षा कृश हो गई है जिसकी ऐसा कौन पूरुप धनके हेतू कर खराब कोतवाल आदिकी आजीविकाओंको करेगा जिस व्यक्तिने अपने भोगोपभोगको कम करनेसे अपनो धनलोलुपता कम कर की है उसे कोतवाल आदिकी नौकरी नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसमें क्रूरता पूर्ण व्यवहार करना पड़ता है ।।१९।। सचित्तको उस चित्तसे सम्बद्ध उम सचित्तसे मिल हए अधपके और गरिष्ट भोजनको करनेवाला व्यक्ति उस भोगोपभोगपरिमाणवतको उल्लङ्घन करता है। भावार्थ-मचित्तभोजन, सचित्तसम्बद्धभोजन, सचित्तसम्मिश्रभोजन, दुष्पक्व भोजन और अभिषवभोजन ये पाँच भोगोपभोगपरिमाणवतके अतिचार है। सचित्तभोजन-कच्ची ककड़ी वगैरहको सचित्त कहते हैं । अज्ञान या प्रमादमे कच्ची ककड़ी आदिका मुखमें डालना या खाना चित्त भोजन कहलाता है। भावार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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