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________________ सागारधर्मामृत भोगः सेव्यः सदुपभोगस्तु पुनः पुनः स्रगम्बरवत् । तत्परिहारः परिमितकालो नियमो यमश्च कालान्तः ॥१४ पलमधुमद्यवदखिलस्त्रसबहुधातप्रमादविषयोऽर्थः । त्याज्योऽन्यथाप्यनिष्टोऽनुपसेव्यश्च व्रताद्धि फलमिष्टम् ॥१५ सेवन करने योग्य है, अथवा यह भोग और उपभोग इतना, तथा इतने समय तक मेरे द्वारा सेवन करने योग्य नहीं है इस प्रकार परिमाण करके प्रतिज्ञासे अतिरिक्त उन भोग और उपभोगको नहीं चाहने वाला गुणव्रती श्रावक भोगोपभोगपरिमाणव्रतको स्वीकार करे। विशेषार्थ-भोग और उपभोगकी मर्यादा विधिमुख और निषेधमुखसे की जाती है। जैसे यह भोग अथवा उपभोग मेरे द्वारा इतना और इतने समय तक सेवन किया जावेगा अथवा यह भोग और उपभोग इतना तथा इतने समय तक मेरे द्वारा त्याज्य है इस प्रकारसे भोग और उपभोगके विषयमें परिमाण करके उससे अधिककी इच्छा नहीं करना गुणव्रत पालकका भोगोपभोग परिमाण व्रत है ।।१३।। जो माला और ताम्बूल आदिकी तरह एक वार सेवनीय होता है वह भोग और जो वस्त्राभूषणादिक की तरह बार बार सेवनीय होता है वह उपभोग कहलाता है। तथा किसी नियमित काल तकके लिये भोगोपभोगका त्याग नियम और जीवनपर्यन्तके लिये उस भोगोपभोगका त्याग यम कहलाता है। भावार्थ-जो पदार्थ एक बार भोगने के बाद फिर भोगने योग्य नहीं रहता वह भोग कहलाता है। जैसे माला गन्ध और भोजन वगैरह । तथा जो पदार्थ वारवार भोगने में आता है वह उपभोग कहलाता है, जैसे-वस्त्र और आभूषण वगैरह । जो त्याग घड़ी आदि नियत समयकी मर्यादा लेकर किया जाता है वह त्याग नियम कहलाता है और जो त्याग जीवन पर्यन्तके लिये किया जाता है वह त्याग यम कहलाता है ।।१४।। भोगोपभोगपरिमाण व्रतके पालक श्रावकके द्वारा मांस, मधु तथा मदिराकी तरह त्रसधात, बहुस्थावरघात और प्रमाद विषयक तथा सघातादिकको विषय करनेवाले नहीं हो करके भी अनिष्ट और इष्ट होता हुआ भी अनुपसेव्य भोग तथा उपभोग करनेके योग्य सम्पूर्ण पदार्थ त्याग दिया जाना चाहिये, क्योंकि ब्रतसे स्वर्गादिक इष्ट फल होता है। विशेषार्थ-भोगोपभोगकी मर्यादाके समय व्रतीके द्वारा त्रसघात, बहुस्थावरघात, प्रमादजनक, अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थों के खानेका मांस, मधु और मदिराके समान त्याग किया जाना आवश्यक है। क्योंकि व्रतसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। जिनमें बहुतसे सम्मुर्छन जीव उड़ कर बैठते हैं, जिनमें जीवोंके रहने के लिये बहुत जगह होती है इस प्रकार कमलनाल आदि त्रसघातविषयक पदार्थ हैं। और इसी प्रकार केतकीके फूल, सहजनके फूल, अरणिके फूल तथा बेलफल आदि बहुजन्तुओंके स्थान हैं। ये सब त्रसघातविषयक पदार्थ हैं। जिन पदार्थोके सेवनसे मधुके समान तदाश्रित बहुतसे जीवोंकी हिंसा होती है तथा जिन कन्दमूल आदिकके भक्षणसे अनन्त स्थावरोंकी हिंसा होती है वे सभी पदार्थ बहुस्थावरहिंसाकारक हैं। जैसे गुरबेल, अदरक, आलू और शकरकन्द इत्यादि । जिन पदार्थोंके सेवनसे मद्यके समान मादकता उत्पन्न होती है उन्हें प्रमाद-जनक पदार्थ कहते हैं । जैसे भांग, धतुरा, अफीम और गांजा इत्यादि । भक्ष्य होनेपर भी जो अपनेको या अपने स्वास्थ्यके लिये हानिकारक है अर्थात् अपनी प्रकृतिके अनुकूल नहीं हो उसे अनिष्ट कहते हैं। जैसे खाँसीके रोग वालेको मिष्टान्न आदि । जो भले पुरुषोंके सेवन करने योग्य नहीं है उसे अनुपसेव्य कहते हैं। जैसे लार, मूत्र आदि पदार्थोंका सेवन तथा चित्र-विचित्र वस्त्रोंका परिधारण करना और विकृत वेष-भूषा करना ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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