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________________ ४८ श्रावकाचार-संग्रह चित्तकालुष्यकत्काहिंसाद्यर्थश्रुतश्रुतिम् । न दुःश्रुतिमपध्यानं नातंरौद्रात्म चान्वियात् ॥९ प्रमादचर्यां विफलक्ष्मानिलाग्न्यम्बुभूरुहाम् । खातव्याघातविध्यापसेकच्छेदादि नाचरेत् ॥१० तद्वच्च न सरेद् व्यर्थ न परं सारयेन्महीम् । जीवघ्नजीवान् स्वीकुर्यान मार्जारशुनकादिकान् ॥११ मुछेत्कन्दर्पकोत्कुच्यमौखर्याणि तदत्ययान् । असमीक्ष्याधिकरणं सेव्यार्थाधिकतामपि ॥१२ भोगोऽयमियान् सेव्यः समयमियन्तं मयोपभोगोऽपि । इति परिमानानिच्छंस्तावधिको तत्प्रमावतं श्रयतु ॥१३ विष, हथियार, हल, गाड़ी, कुसिया, कुदारी और कुल्हाड़ी आदि वस्तुओंसे हिंसा सम्भव है इसलिये इनके दानको हिंसादान कहते हैं । तथा जिनके साथ अपना व्यवहार नहीं है ऐसे अपरिचित किसी व्यक्तिको भोजन पकानेके लिये अग्नि, कूटनेको मूसल आदिका देना भी निष्प्रयोजन होनेसे हिंसादान है। अनर्थदण्डत्यागी श्रावकको इन दोनों प्रकारके हिंसादानका त्याग कर देना चाहिये ||८॥ अनर्थदण्डव्रतका इच्छुक श्रावक चित्तमें कलुषता उत्पन्न करनेवाले काम हिंसा आदिके प्रवर्धक शास्त्रोंके श्रवणरूप दुःश्रुति नामक अनर्थदण्डको नहीं करे और आर्त तथा रौद्रध्यान स्वरूप अपध्यान नामक अनर्थदण्डको नहीं करे। भावार्थ-जिन शास्त्रोंमें काम और हिंसा आदि रूप अर्थोंका कथन है उनके सुननेको दुःश्रुति-नामक अनर्थदण्ड कहते हैं। तथा आर्त और रौद्र ध्यानको अपध्यान अनर्थदण्ड कहते हैं। अनर्थदण्डवतीको इन दोनोंका परित्याग कर देना चाहिये ॥९॥ अनर्थदण्डका त्यागी निष्प्रयोजन पृथ्वीके खोदने, वायुके रोकने, अग्निके बुझाने, जलके फेंकने तथा वनस्पतिके छेदने आदि रूप प्रमादचर्याको नहीं करे । भावार्थ-निष्प्रयोजन-भूमि खोदना, वायु रोकना, अग्नि बुझाना, जल फेंकना या सींचना और वनस्पतिका छेदना, प्रमादचर्या अनर्थदण्ड कहा जाता है । इस व्रतके धारीको इनका भी परित्याग करना चाहिये ॥१०॥ निष्प्रयोजन पृथ्वी खोदने आदिकी तरह बिना प्रयोजन पृथ्वी पर स्वयं नहीं घूमे, दूसरोंको भी नहीं घुमावे तथा बिल्ली कुत्ता आदि जोवोंके घातक जीवोंको नहीं पाले ॥११॥ अनर्थदण्डका त्यागी श्रावक कन्दर्प, कौत्कुच्य, मोखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और सेव्यार्थाधिकता इन अनर्थदण्डव्रतके पाँच अतिचारोंको छोड़े । विशेषार्थ-कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और सेव्यार्थाधिकता ये पाँच अनर्थदण्डव्रतके अतिचार हैं। इस अनर्थदण्डके त्यागो व्रतीको इनका परित्याग करना चाहिये । कन्दर्प-काम या रागके उद्वेगसे प्रहासमिश्रित अशिष्ट वचन बोलना कन्दपं कहलाता है । कौत्कुच्य-हास्य और भंडवचन सहित भौंह, नेत्र, नाक, ओंठ, मुख, पैर और हाथ आदिकी संकोचादि क्रिया द्वारा कुचेष्टा करनेको कौत्कुच्य कहते हैं। मौखर्य-धृष्टतापूर्वक विचार-रहित असत्य और असंबद्ध बहुत बोलनेको मौखर्य कहते हैं। असमीक्ष्याधिकरण-अपने प्रयोजनका विचार नहीं करके प्रयोजनसे अधिक कार्यका करना कराना असमीक्ष्याधिकरण कहलाता है । अथवा हिंसाके उपकरणोंको उनके साथी दूसरे उपकरणोंके पास रखना । जैसे उखलीके पास मूसल, हलके पास फाल, गाड़ी के पास जुआँ और धनुषके साथ बाणोंको रखना भी असमीक्ष्याधिकरण नामक अतिचार है। क्योंकि ऐसा करनेसे इन चीजोंको आरम्भादि कार्यके लिए हर एक व्यक्ति सुलभतासे ले सकता है। तथा देनेके लिए निषेध भी नहीं किया जा सकता। सेव्यार्थाधिकताजितने भोग व उपभोगके साधनोंसे अपना प्रयोजन सधता है उससे अधिक साधन सामग्रीके जुटानेको सेव्यार्थाधिकता कहते हैं ॥१२॥ यह भोग और इतना उपभोग इतने समय तक मेरे द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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