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________________ ४७ सागारधर्मामृत पोडा पापोपदेशाधैर्देहाद्यर्थाद्विनाङ्गिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्त्यागोऽनर्थदण्डवतं मतम् ॥६ पापोपदेशो यद्वाक्यं हिंसाकृष्यादिसंश्रयम् । तज्जीविभ्यो न तं दद्यान्नापि गोष्ठयां प्रसज्जयेत् ॥७ हिंसादानं विषास्त्रादिहिसाङ्गस्पर्शनं त्यजेत् । पाकाद्यर्थं च नान्यादि दाक्षिण्याविषयेऽपयेत् ॥८ दिग्व्रतके अतिचार हैं। सीमाविस्मृति-किसीने सौ योजनकी मर्यादा की। जब जानेका समय आया तब अज्ञान अथवा प्रमादसे भूल जाना। यह विचार करना कि-नहीं मालूम १०० योजनकी प्रतिज्ञा की थी या ५० योजन की ? ऐसी हालतमें यदि वह ५० योजनके भीतर ही गमन करता है तो उसका व्रत निर्दोष है, ५० योजनसे बाहर जाता है तो अतिचार-सहित है और १०० योजनसे बाहर जाता है तो अनाचार है। क्योंकि ५० योजनके भीतर जानेवालेने व्रतका पूरा पालन किया है । और उससे अधिक बाहर जानेवालेने संशयके कारण एकदेश भंग किया है तथा १०० योजनके बाहर गमन करनेवालेने पूरा व्रत भंग किया है । ऊवभागातिक्रम, अधोभागातिकम, तिर्यग्भागातिक्रम--मर्यादा करते समय अपनी सीमा सम्बन्धी ऊर्श्वभाग, अधोभाग आर तिर्यग्भागकी जो प्रतिज्ञा की जाती है। उस सीमाका अज्ञान वा प्रमादसे उल्लङ्कन करना ऊध्र्वभागातिक्रम आदि अतिचार हैं । किन्तु बुद्धिपूर्वक साक्षात् इन भागोंकी सीमाका उल्लङ्घन करना तो अनाचार ही है। क्षेत्रवृद्धि-किसी व्रतीने चारों दिशाओंमें १०० योजन तक जानेकी मर्यादा की है परन्तु समय बीतनेपर जिस ओर उसे अधिक जाना है उस ओर १०० योजनसे भी अधिक चला जाता है और उसके विरुद्ध दिशाओं में उतना ही कम जानेका विचार करता है तो उसका यह क्षेत्रवृद्धि नामका अतिचार है। क्योंकि उसने एक तरफकी मर्यादा कम करके दूसरी ओरकी उतनी ही मर्यादा बढ़ा ली है ॥५॥ अपने तथा अपने कुटुम्बीजनोंके शरीर, वचन तथा मन सम्बन्धी प्रयोजनके बिना पापोपदेशादिकके द्वारा प्राणियोंको पीडा देना अनर्थदण्ड कहलाता है और उस अनर्थदण्डका त्याग अनर्थदण्डवत माना गया है। भावार्थ-जिससे अपने तथा अपनेसे सम्बद्ध कुटुम्बीजन आदिका मन, वचन और काय सम्बन्धी कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता ऐसे पापोपदेशादिक द्वारा प्राणियोंको पीड़ा पहुँचाना अनर्थदण्ड कहलाता है। उस अनर्थदण्डका त्याग अनर्थदण्डवत कहलाता है। पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या ये पांच अनर्थदण्डके भेद हैं ॥६॥ हिंसा, खेती और व्यापार आदिको विषय करनेवाला जो वचन होता है वह पापोपदेश कहलाता है, इसलिये अनर्थदण्डव्रतका इच्छुक श्रावक हिंसा, खेती और व्यापार आदिकसे आजीविका करनेवाले, व्याध, ठग और चोर आदिके लिये उस पापोपदेशको नहीं देवे और कथा वार्तालाप आदिमें उस पापोपदेशको प्रसङ्ग नहीं लावे। भावार्थ-जिन वाक्योंका हिंसादिक पाप तथा खेती और व्यापार आदिकसे सम्बन्ध जुड़ सकता हो उन वाक्यों द्वारा हिंसा, खेती और व्यापार आदिक द्वारा आजीविका करनेवालोंको उपदेश देना पापोपदेश कहलाता है। ऐसा पापोपदेश नहीं देना चाहिये और गोष्ठीमें भी उसका प्रसङ्ग नहीं लाना चाहिये। जैसे व्याधोंकी सभामें यह कहना कि क्यों बैठे हो "आज जलाशयके किनारे बहुतसे पक्षी आये हैं" इस वाक्यको सुनकर कोई व्याध उनके वधका उपाय सोच सकता है। इसलिये यह वाक्य पापोपदेशकी कोटिमें चला जाता है। इसीप्रकार अन्य उदाहरण भी जानना ।।७।। विष और हथियार आदि हिंसाके कारणभूत पदार्थोंका देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है। उस हिंसादान अनर्थदण्डको छोड़ देना चाहिये और जिनसे अपना व्यवहार नहीं है ऐसे पुरुषोंसे भिन्न पुरुषोंके विषयमें पाकादिकके लिये अग्नि वगैरह नहीं देना चाहिये । भावार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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