SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम अध्याय यद्गुणायोपकारायाणुव्रतानां व्रतानि तत् । गुणव्रतानि त्रीण्याहुदिग्विरत्यादिकान्यपि ॥१ यत्प्रसिद्धेरभिज्ञानैः कृत्वा दिक्षु दशस्वपि । नात्येत्यणुव्रती सीमां तत् स्याद्दिग्विरतिव्रतम् ॥२ दिग्विरत्या बहिः सीम्नः सर्वपापनिवर्तनात् । तप्तायोगोलकल्पोऽपि जायते यतिवद् गृही ॥३ दिग्व्रतोद्रिक्तवृत्तघ्नकषायोदयमान्द्यतः । महाव्रतायतेऽलक्ष्यमोहे गेहिन्यणुव्रतम् ॥४ सोमविस्मृतिरूर्ध्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमाः । अज्ञानतः प्रमादाद्वा क्षेत्रवृद्धिश्च तन्मलाः ॥५ यतः दिग्व्रत आदिक तीनों ही व्रत अणुव्रतोंके उत्कर्षके लिये तथा उपकारके लिये होते हैं अतः आचार्य उन दिग्व्रत आदिकको गुणव्रत कहते हैं । भावार्थ - दिग्व्रतं आदिकसे अणुव्रतोंकी रक्षा और विशुद्धि होती है तथा चारित्रगुणका विकास होता है और जैसे बाड़से खेतकी रक्षा होती है उसीप्रकार सात शीलोंसे अणुव्रतोंकी रक्षा होती है । इसलिये इन विशेष गुणों के आधायक व्रतोंको गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रतके तीन भेद हैं- दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाणव्रत ||१|| अणुव्रतोंका पालक श्रावक जो प्रसिद्ध प्रसिद्ध चिह्नोंसे दशों ही दिशाओंमें सीमाको करके उसका उल्लङ्घन नहीं करता है वह दिग्व्रत नामक व्रत कहलाता है । भावार्थलोभ वा आरम्भ घटाने के लिये किन्हीं प्रसिद्ध चिह्नों तक दशों दिशाओं में आने जानेकी मर्यादा कर लेना और उसका उल्लङ्घन नहीं करना दिव्रत है । यह दिग्व्रत अणुव्रतीके होता है ॥२॥ दिग्व्रतकी मर्यादाके बाहर सम्पूर्ण पापोंकी निवृत्ति हो जानेसे तपे हुए लोहेके गोलेकी तरह गमन, भोजन और शयन आदि सम्पूर्ण क्रियाओंमें जीवोंकी हिंसा करनेवाला भी गृहस्थ मुनिकी तरह होता है। भावार्थ–जैसे तपा हुआ लाल लोहेका गोला यदि पानीमें डाला जावे तो वह चारों तरफसे पानीको खींचता है, वैसे ही आरम्भ परिग्रह जनित कषायरूपी अग्निके कारण भाव विकारोंमें तपा हुआ गृहस्थका आत्मा चारों ओरसे कार्मणवर्गणाओंको खींचता है । परन्तु अणुव्रतीका आत्मा दिग्वतकी मर्यादाके बाहर सर्व आरम्भ, परिग्रह और भोगोपभोगजनित पापोंका त्याग होनेसे यत्तिके समान पापोंसे बचता है । तात्पर्य यह है कि दिग्वतके पालनसे विवक्षित क्षेत्र से बाहरके क्षेत्रमें महाव्रतका अभ्यास होता है । अतः अणुव्रती दिग्वतकी मर्यादाके बाहर महाव्रतीके समान कहा जाता है ||३|| दिग्व्रतके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होने तथा व्रतोंके घातक कषायके उदयके मन्दपनेसे विदित नहीं होता है मोहका अस्तित्व जिसके ऐसे गृहस्थ में अणुव्रत महाव्रत के समान आचरण करता है । भावार्थ - दिग्व्रतके व्रतकी प्रतिज्ञासे सकल संयमके घातक प्रत्याख्यानावरणादि कषायोंकी उत्कृष्ट रीतिसे मंदता हो जाती है । इसलिये अणुव्रतीका प्रत्याख्यानावरणजनित चारित्रमोहका उदय अतिशय मन्दताके कारण किसीके लक्ष्यमें नहीं आता, इसलिये दिव्रतका पालक अणुव्रतो दिग्वतकी मर्यादाके बाहर महाव्रती कहा जाता है ||४|| अज्ञानसे अथवा प्रमादसे नियमित मर्यादाका भूल जाना ऊपर, नीचे तथा तिरछी मर्यादाका उल्लङ्घन करना और मर्यादित क्षेत्रसे अधिक क्षेत्रका बढ़ा लेना ये पांच दिग्वतके अतिचार हैं । विशेषार्थसीमाविस्मृति, ऊर्ध्वभागातिक्रम, अधोभागातिक्रम, तिर्यग्भागातिक्रम और क्षेत्रवृद्धि ये पाँच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy