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________________ सागारधर्मामृत पञ्चाप्येवमणुव्रतानि समतापीयूषपानोन्मुखे सामान्येतरभावनाभिरमलीकृत्यापितान्यात्मनि । त्रातुं निर्मलशीलसप्तकमिदं ये पालयन्त्यादरात् ते संन्यासविधिप्रमुक्ततनवः सौर्वोः श्रियो भुञ्जते ॥६६ होता है। भावार्थ-जो व्यक्ति इस परिग्रह परिमाण व्रतको निरतिचार पालन करता है वह लोभविजेता व्यक्ति भरत चक्रवर्तीके सेनापति जयकुमारके समान इन्द्रादिक द्वारा प्रतिष्ठाको पाता है। जयकुमारका कथानक प्रथमानुयोगसे जानना चाहिए ।।५।। जो भव्यजीव इस प्रकार समतारूपी अमतका पान करने में तत्पर अपनी आत्मामें सामान्य और विशेष भावनाओंके द्वारा अतिचारोंको दूर करके अर्पित किये गये पाँचों ही अणुव्रतोंको रक्षा करने के लिए इस वक्ष्यमाण निरति. चार सात शीलोंको आदरसे पालन करते हैं समाधिमरण गरीन्को छोड़नेवाले वे भव्य स्वर्गसंबंधी लक्ष्मियोंको भोगते हैं। भावार्थ-जिसके प्रभाव समतारूपा अमतके पानको भावना प्रकट होतो है ऐसे सम्यग्दर्शन सहित आत्मामें आगमोक्त व्रतोंको सामान्य और विशेष भावनाओं द्वारा निरतिचार पंच अणुव्रतोंके भली प्रकार निर्वाहके लिए जो श्रावक तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रतों ( सात शीलवतों ) का निरतिचार पालन करते हैं, वे संन्यासविधिसे शरीरका परित्याग कर स्वर्ग सम्बन्धी उत्तम विभूति पाते हैं ॥६६।। ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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