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________________ श्रावकाचार-संग्रह यः परिग्रहसंख्यानवतं पालयतेऽमलम् । जयवज्जितलोभोऽसौ पूजातिशयमश्नुते ॥६५ से की जाती है । उनको सेतुकेतुखेत कहते हैं । जीवन-पर्यन्त या नियतकालतकको देवादिकके समक्ष गृहीत घर वा खेतकी मर्यादाका घरसे घर जोड़कर और खेतकी बारी या मेढ़ काटकर ( खेतसे खेत जोड़कर ) उल्लंघन करना वास्तुक्षेत्रयोग नामका अतिचार कहलाता है। इसमें इस प्रकारके भावसे मर्यादा बढ़ाई जाती है कि मैंने तो केवल अपने घर अथवा खेतको बढ़ाया है, मर्यादाके समय जितने घर वा खेत रखे थे उनकी संख्याका उल्लंघन कब किया है ? इस प्रकार व्रतकी अपेक्षा रखनेसे अभंग तथा भावोंके द्वारा परिग्रहकी वृद्धि होनेसे व्रतभंग होनेके कारण यह अतिचार है। धनधान्यबन्धनातिचार-गणिम, धरिम, मेय और परीक्ष्यके भेदसे धन चार प्रकार है। गिनकर ली जानेवाली सुपारी, जायफल आदिका गणिम, कुंकम और कपूर आदिको धरिम, तेल, नमक आदिको मेय और रत्नादिकको परीक्ष्य धन कहते हैं। धान, जौ, गेहूँ, तिल, कोद्रव आदिको धान्य कहते हैं । सुपारी आदि हमारे मालकी बिक्री जब हो जावेगी अथवा खर्च हो जावेगा तब तुम्हारा माल में ले लेंगा, मेरे इतनेका परिमाण है, इसलिये इसके बिकनेके बाद या खर्च होनेके बाद माल तुम्हारा ही खरीदूंगा, तुम बेचना नहीं, इस प्रकारसे दूसरेके मालको खरीदनेके अभिप्रायसे रोक रखना (बंधेवर बाँधना) धनधान्यबन्धन नामका अतिचार है। कनकरूप्यदानातिचार-प्राप्त हुए मर्यादासे अधिक स्वर्ण चाँदीका धरोहर रख देना या अपने बन्धुजनोंको दान दे देना कनकरूप्यदानातिचार कहलाता है। जैसे-किसी गृहस्थने स्वर्ण चांदी और जेवरोंकी कुछ कालतककी मर्यादा कर ली, इतनेमें उसे उसकी मर्यादासे अधिक स्वर्ण वा चाँदी भेंट या पारितोषिक आदिमें मिला, ऐसी स्थितिमें मर्यादाका काल पूरा होने तक उसके द्वारा वह अधिक स्वर्ण या चाँदी किसी के यहाँ धरोहर रख देना या भाई बन्धु आदिको दान में दे देना कनकरूप्यदानातिचार है। कुप्यभावातिचार-सुवर्ण और चाँदीसे भिन्न ताँबा, पीतल, बांस, लकड़ी वा मिट्टी आदिसे बनी हुई चीजोंको कुप्य कहते हैं। उनमें दो-दोको मिलाकर एक करनेको भाव कहते हैं। कुप्यकी जितनी संख्याकी प्रतिज्ञा ले ली है उसकी संख्या बढ़ने पर संख्याको रक्षाके लिये वस्तुओंको मिलाकर ( ढलवाकर ) बड़ी-बड़ी वस्तुएं बनवा लेना कुप्यभावातिचार है। क्योंकि संख्या यद्यपि मर्यादित ही रही परन्तु उसकी स्वाभाविक संख्यामें ढलवा लेनेसे बाधा जरूर आती है इसलिये कथञ्चित् भंग और कथञ्चित् अभंग होनेसे यह अतिचार है । अथवा स्वर्णादिकके समान इन वस्तुओंकी भी अधिक प्राप्ति हो जानेपर मेरे इतने कालतक इन वस्तुओंका परिमाण है; मैं नहीं रख सकता, मर्यादित काल पूरा होनेपर उठा लूंगा, इस अभिप्रायसे धरोहर रख देना भी कुप्यभावातिचार कहलाता है । अथवा किसी वस्तुके लानेवालेसे यह कहना कि मुझे यह वस्तु जरूर लेनी है परन्तु मर्यादाके बाहर होनेसे आज नहीं ले सकता, तुम किसीको बेचना नहीं, मर्यादित काल पूरा होते ही में इसे जरूर ले लूंगा। इस प्रकार मनमें संख्याकी वृद्धिका भाव आ जाना भी कुप्यभावातिचार कहलाता है। गवादिगर्भातिचार-यहां पर आदि शब्दसे भैंस, घोड़ी, आदिका ग्रहण समझना चाहिये । इनमें नवीन गर्भ होनेपर भी अपनी की हुई मर्यादाका भंग नहीं समझना गवादिगर्भातिचार कहलाता है । इस अतिचारसे बचनेके लिये व्रतीको गाय आदिके गर्भ रहनेपर किसी एकका विक्रय या दान आदि करना पड़ता है ॥६४॥ जीत लिया है लोभ जिसने ऐसा जो श्रावक अतिचार रहित परिग्रहपरिमाणाणुव्रतको पालन करता है । वह श्रावक जयकुमारको तरह पूजाके अतिशयको प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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