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________________ सागारधर्मामृत देशसमयात्मजात्यायपेक्षयेच्छां नियम्य परिमायात् । वास्त्वादिकमामरणात् परिमितमपि शक्तितः पुनः कृशयेत् ॥६२ अविश्वासतमोनक्तं लोभानलघृताहुतिः। आरम्भमकराम्भोधिरहो श्रेयः परिग्रहः ॥६३ वास्तुक्षेत्रे योगाद धनधान्ये बन्धनात् कनकरूप्ये। दानात्कुप्ये भावान्न गवादी गर्भतो मितिमतीयात् ॥६४ सकता है उस बाह्यपरिग्रहको धीरे-धीरे कम करे । भावार्थ-बाह्यपरिग्रह, श्रावकके पदके अयोग्य असंयमके कारण होते हैं इसलिये बाह्यपरिग्रहका भी त्याग करना चाहिए। और जो बाह्यपरिग्रह गृहस्थाश्रममें अत्यावश्यक है उसका आगम परिपाटी तथा कालको मर्यादाके क्रमसे धीरे-धीरे त्याग करना चाहिए। क्योंकि परिग्रह संज्ञा अनादिकालसे लगी है इसलिये उसका सहसा त्याग नहीं हो सकता। और किसीने कर भी दिया तो संज्ञाकी वासनासे उसके त्यागके भंगकी सम्भावना रहती है। इसलिये श्रावकको बाह्यपरिग्रहका त्याग आगम परिपाटीके अनुसार कालक्रमसे धीरे-धीरे करना चाहिये । त्रसवध, व्यर्थस्थावरवध और परदारगमन आदिक अयोग्यासंयम शब्दसे कहे जाते हैं। ये श्रावक पदके योग्य नहीं होते और इनसे संयमका घात होता है ॥६१॥ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका पालक श्रावक देश, काल, आत्मा और जाति आदिको अपेक्षासे परिग्रह-विषयक तृष्णाको सन्तोषकी भावनाओं द्वारा रोक करके वास्त्वादिक दश प्रकारके परिग्रहको जीवनपर्यन्तके लिये परिमाण करे । और परिमित परिग्रहको भी अपनी शक्तिके अनुसार कम करे। भावार्थ-वास्तु, क्षेत्र, धन, धान्य, चतुष्पद, द्विपद, शयन, आसन, वाहन और कुप्य ये दस बाह्यपरिग्रह हैं । देश, काल, अपनी आत्मा, जाति, कुल, अवस्था और पदवीके अनुसार इन दस प्रकारके बाह्यपरिग्रहोंके विषयमें अपनी इच्छाका निग्रह करके जन्म भरके लिए परिमाण करे तथा परिमाण करनेके बाद भी ज्यों-ज्यों त्यागको शक्ति बढ़ती जावे त्यों-त्यों धीरे-धीरे इनको कृश करता जावे ॥२॥ अविश्वास रूपी अन्धकारके लिए रात्रिके समान, लोभरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिए घीकी आहुतिके समान और आरम्भ रूपी मगरमच्छ वगैरहके लिए समुद्रके समान परिग्रह कल्याण करने वाला या सेवन करने योग्य है। यह बड़ा आश्चर्य है। भावार्थ-जैसे रात्रिमें अन्धकार बढ़ता है, वैसे ही परिग्रहके कारण अविश्वास बढ़ता है। जैसे घी डालनेसे आग बढ़ती है उसी प्रकार परिग्रह के लोभसे परिग्रह बढ़ता है। जैसे समुद्र में मगर स्वच्छन्द होकर विचरता है, वैसे ही परिग्रहके रहते हुए आरम्भको फैलनको पूर्ण स्वतंत्रता रहती है, ऐसा परिग्रह हितकारक माना जाता है, यह बड़े आश्चर्यका बात है ॥६३॥ परिग्रह परिमाणाणुव्रतका पालक श्रावक मकान और खेतके विषय में अन्य मकान और अन्य खेतके सम्बन्धसे, धन और धान्यके विषयमें व्याना बाँधनेसे, स्वणं और चाँदीके विषयमें धरोहर रखने या दान देनेसे, स्वर्ण और चाँदीसे भिन्न धातु वगैरहके बर्तनोंके विषयमें मिश्रण या परिवर्तनसे गाय बैल आदिके विषयमें गर्भसे मर्यादाको उल्लङ्घन नहीं करे। विशेषार्थ-वास्तुक्षेत्रयोग, धनधान्यबन्धन, कनकरूप्यदान, कुप्यभाव और गवादिगर्भ ये पाँच परिग्रह परिमाणाणुव्रतके अतिचार हैं। वास्तुक्षेत्र योगातिचार-वास्तुका अर्थ घर ग्राम नगर आदि है। घर तीन प्रकारके होते हैं-तलघर, प्रासाद और जो नीचे भी बनाये जाते हैं और जिनमें ऊपरी मंजिल बनाई जाती है । खेत भी तीन प्रकारके होते हैं-जिन खेतोंमें सिंचाई राहट वगैरहसे की जाती है ऐसे बाग-बगीचेके खेत सेतुखेत कहलाते हैं। जिनकी सिंचाई आकाशके पानीसे ही होती है उनको केतुखेत कहते हैं और जिनकी सिंचाई आकाश तथा कुआं दोनोंके पानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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