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________________ ४२ श्रावकाचार-सग्रह ममेदमिति सङ्कल्पश्चिदचिन्मिश्रवस्तुषु । ग्रन्थस्तत्कर्षनात्तेषां कर्शनं तत्प्रमावतम् ॥५९ उद्यत्कोधादिहास्यादिषट्कवेदत्रयात्मकम् । अन्तरगं जयेत्सङ्ग प्रत्यनीकप्रयोगतः ॥६० अयोग्यासंयमस्याङ्ग सङ्गं बाह्यमपि त्यजेत् । मूर्छाङ्गत्वादपि त्यक्तुमशक्यं कृशयेच्छनैः ॥६१ कोई योग्य भाई बन्धु वगैरह इनके विवाहको जिम्मेदारी ले लेवें तो व्रतोको अपनो कन्या या पुत्र का विवाह नहीं करना चाहिये। विटत्व-रागवर्धक, आसक्तिद्योतक, अश्लील वचन बोलना 'विटत्व' नामका अतिचारं है । क्योंकि यह अपने सिवाय दूसरेके मनमें भी काम-भाव जागृत करता है । स्मरतीवाभिनिवेश-कामासक्तिके कारण सब पुरुषार्थ छोड़कर एक कामसेवन व्यवसाय मान लेना। चिड़वा चिड़वीके समान अपनी स्त्रीके साथ पुनः पुनः कापसेवन तथा अनेक प्रकारको कुचेष्टायें करना, बाजीकरण औषधियोंको खाकर मैं हाथी वा घोड़ेके समान बल प्राप्त करके भोग भोगने में समर्थ होऊँगा इत्यादि आसक्तिपूर्वक कामकी अधिकतामें रागद्वेष करनेको 'स्मरतीवाभिनिवेश' कहते हैं । यह अतिचार अपनी ही स्त्रीमें अत्यासक्तिके कारण होता है । अनंगक्रीडा-अंग शब्दका अर्थ स्त्रीकी योनि और पुरुषका लिंग है। इन अंगोंके सिवाय दूसरे अंगोंमें कायकृत कुचेष्टा करना अनंगक्रीडा है। अतिकामी व्यक्ति जो रागोत्पादक नाना प्रकारकी कुचेष्टायें करते हैं, वे सब अनंगक्रोडामें शामिल हैं। स्त्रियोंकी अपेक्षासे भी चार अतिचार तो पुरुषोंके समान होते हैं । एक 'इत्वरिका गमन' की जगह परपुरुष गमन' नामका अतिचार इस प्रकार समझना चाहिये कि किसी पुरुषके दो स्त्रियाँ हैं, उनकी सहूलियतके लिए उसने दिन नियत कर दिये हैं । जिस पत्नीका जो दिवस है उस पत्नीको उसी दिन अपने पतिके साथ स्त्रियोचित व्यवहार करना चाहिये । दूसरी पत्नीके दिन उसका पति इसके लिये परपुरुष ही है। यदि उस दिन इसकी वारी नहीं है और अपने पतिके साथ वह सहवास करेगी तो इसको 'परपुरुषगमन' नामका अतिचार लगेगा अथवा अपना पति जिस दिन ब्रह्मचर्य व्रतसे हो उस दिन अतिक्रम करनेवाली स्त्रीके यह प्रथम अतिवार लगेगा ॥५८॥ चेतन, अचेतन तथा चेतनाचेतनात्मक मिश्र वस्तुओंमें यह मेरी है, अथवा मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकारके सङ्कल्प, अथवा ममत्व परिणामोंका नाम परिग्रह है, तथा उस परिग्रहके कम करनेसे उन चेतन, अचेतन और मिश्र वस्तुओंका कम करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है । विशेषार्थ-स्त्री पुत्र आदि सजीव वस्तुओंको चेतन, स्वर्ण और चाँदी आदि अजीव वस्तुओंको अचेतन तथा बाग बगीचा आदि उभयात्मक वस्तुओंको मिश्र परिग्रह कहते हैं। इन चेतन, अचेतन और मिश्र वस्तुओंमें 'यह मेरी है' इस प्रकारके सङ्कल्प ( ममत्व परिणामको ) परिग्रह कहते हैं और चेतन, अचेतन तथा मिश्र वस्तुओंकी मर्यादा करके मर्यादासे बाहर इन पदार्थों में ममत्व का परित्याग करना 'परिग्रहपरिमाणाणुव्रत' कहलाता है ।।५९।।।। परिग्रह परिमाणाणुव्रतका इच्छुक श्रावक उदीयमान प्रत्याख्यानावरणादि आर क्रोधादिक कषायस्वरूप, हास्यादिक छह नोकषायस्वरूप और स्त्रीवेदादि तीन वेदस्वरूप अन्तरंग परिग्रहको यथायोग्य उत्तमक्षमादिककी भावनाके द्वारा जीते । भावार्थ-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लाभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवद, पुंवेद और नपुंसक वेद ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । अर्थात् इन कषायोंके उदयको अन्तरंग परिग्रह कहते हैं। क्रोधादिककी प्रतिकूल उत्तमक्षमादिभावनाओंसे इनका परित्याग करना चाहिये ॥६०॥ परिग्रह परिमाण व्रतका पालक श्रावक मूर्छाका कारण होनेसे नहीं करने योग्य अनुचित असंयमके कारणभूत बाह्य परिग्रहको भी छोड़े और जो बाह्यपरिग्रह छोड़नेके लिए अशक्य है अर्थात् जिस बाह्य-परिग्रहको श्रावक छोड़ ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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