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सागारधर्मामृत
स्वस्त्रीमात्रेऽपि सन्तुष्टो नेच्छेद्योऽन्याः स्त्रियः सदा । सोऽप्यद्भुतप्रभावः स्यात् किं वण्यं वर्णिनः पुनः ॥५६ रूपैश्वर्य कलावयंमपि सीतेव रावणम् । परपुरुषमुज्झन्ती स्त्री सुरैरपि पूज्यते ॥५७ इत्वरिकागमनं पर विवाहकरणं विटत्वमतीचाराः । स्मरतीव्राभिनिवेशोऽनङ्गक्रीडा च पञ्च तुर्ययमे ॥५८
राग और द्वेषको अवश्य ही सेवन करता है और वह बहुतसे सूक्ष्म योनि सम्बन्धी जीवोंको मारता है इसलिये अपनी स्त्रीको सेवन करनेवाला भी मनुष्य हिंसक होता है । भावार्थ - स्त्री के सेवनसे रागद्वेषकी उत्पत्ति होती है, इसलिये तो भावहिसा होती है और योनिगत बहुत से सम्मूर्च्छन जीवों का घात होता है, इसलिये द्रव्यहिंसा भी होती है। इस प्रकार अपनी स्त्रीका प्रसंग करनेवालेको भी द्रव्यहिंसा और भावहिंसाका पाप लगता है ||२५|| अपनी स्त्रीमात्र में ही सन्तुष्ट होता हुआ जो कभी भी अन्य स्त्रियोंकी इच्छा नहीं करता है वह स्वदार - सन्तोषी पुरुष भी अद्भुत प्रभाव या माहात्म्य वाला होता है । फिर सम्पूर्ण स्त्रियोंसे विरक्त ब्रह्मचारीके माहात्म्यका क्या वर्णन किया जा सकता है ।। ५६ ।। रावणको त्यागनेवाली सीताकी तरह रूप, ऐश्वर्य और कलाओं में उत्कृष्ट अर्थात् असावारण परपुरुषको त्यागनेवाली स्त्री देवोंके द्वारा भी पूजी जाती है । भावार्थ - जैसे सीताने रूप, ऐश्वर्य और कलाओं में सर्व श्रेष्ठ रावणको चाह नहीं की थी जिससे उसका संसारमें आजतक यश विख्यात है, उसी प्रकार जो सती रूपादिक गुणों में श्रेष्ठ भी परपुरुषका त्याग करती है वह उभयलोकमें देवताओंके द्वारा पूजी जाती है ||५७|| इत्वरिकागमन, परविवाहकरण, विटत्व, कामतीव्राभिनिवेश और अनंगक्रीड़ा ये पाँच सार्वकालिक ब्रह्मचर्याणुव्रत में अतिचार होते हैं । विशेषार्थ - इत्वरिकागमन, विटत्व, स्मरतीव्राभिनिवेश, परविवाहकरण और अनंगक्रीडा ये पाँच ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार हैं । इनका खुलासा इस प्रकार है । इत्वरिकागमन - बिना स्वामीवाली असदाचारिणी स्त्रीको इरिका कहते हैं । इसके गणिका, पुंश्चली, व्यभिचारिणी, दारिका और वेश्या आदि अनेक नाम हैं । इत्वरिका स्त्रीके यहाँ गमन करनेवालेके यदि ऐसी भावना हो कि रुपया पैसा देकर जितने कालतक मैं अपनी स्त्री समझकर सेवन करता हूँ उतने कालतक वह परस्त्री नहीं है, इसलिये मेरे व्रतका भंग नहीं होता, परन्तु वह वास्तव में स्वपत्नो नहीं है, इसलिये व्रतका भंग होता है । इस प्रकार व्रत भंग होनेसे यह अतिचार है । परविवाहकरण - अपनी स्त्रीको छोड़कर अन्य सर्व प्रकार की स्त्रियोंके त्यागी स्वदार सन्तोषीके एवं अन्य सब प्रकारकी स्त्रियोंका त्रियोगसे सेवन और प्रेरणाके त्यागी परदारनिवृत्तिव्रतधारीके विवाह दम्पत्तियों के मैथुनका साधक होने से 'परविवाहकरण' निषिद्ध है । परन्तु इस प्रकार व्रत लेनेवाला अपने मनमें यह समझता है कि मैंने इन वर-वधूका विवाह ही कराया है, सम्भोग नहीं कराया है, इस दृष्टिसे गृहीतव्रतका अभंग है । परन्तु वास्तवमें वह विवाह मैथुनके लिए कारण है, इसलिये व्रतका भंग समझना चाहिये । यह व्रत पालनेवाले दो हैं - एक सम्यग्दृष्टि दूसरा भद्रमिथ्यादृष्टि । उनमेंसे सम्यग्दृष्टि तो अज्ञानके कारण कन्यादान के फलकी इच्छासे अतिचार करता है तथा भद्रमिथ्यादृष्टि अनुग्रह की दृष्टि से दूसरोंकी कन्या वा पुत्रोंके विवाह करके अतिचार सेवन करता है । विवाह नहीं करनेसे कन्या और पुत्र स्वेच्छाचारी हो जावेंगे और शास्त्र तथा लोक व्यवहार में विरोध आवेगा । इस विचारसे ब्रह्मचर्याणुव्रतीको अपनी कन्या तथा पुत्रका विवाह करना दोषजनक नहीं है । परन्तु
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