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________________ श्रावकाचार-संग्रह प्रतिपक्षभावनेव न रती रिरंसारुजि प्रतीकारः । इत्यप्रत्ययितमनाः श्रयत्वहिंस्रः स्वदार सन्तोषम् ॥ ५१ सोऽस्ति स्वदार सन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ । न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति त्रिधा ॥५२ सन्तापरूपो मोहाङ्गसादतृष्णानुबन्धकृत् । स्त्रीसम्भोगस्तथाप्येष सुखं चेत्का ज्वरेऽक्षमा ॥५३ सम-रस-रस- रङ्गोद्गम- मृते च काचित् क्रिया न निर्वृतये । स कुतः स्यादनवस्थित-चित्ततया गच्छतः परकलत्रम् ॥५४ स्त्रियं भजन् भजत्येव रागद्वेषौ हिनस्ति च । योनिजन्तून् बहून् सूक्ष्मान् हिंस्रः स्वस्त्रीरतोऽप्यतः ॥५५ ४० और उसकी आज्ञा भंगकी एवजमें दण्ड दिया जा सकता है, इस दृष्टिसे व्रत भङ्ग हुआ है । परन्तु में दूसरेकी भूमि में आया हूँ या आदमी भेजा है, बिना ऐसा किये हमारा काम नहीं बन सकता अर्थात् खासी नफा नहीं मिल सकती, मैंने व्यापार किया है, चोरी नहीं की, इस प्रकार की भावना करता है | विरुद्धराज्यमें अतिक्रम करनेवाला अपने व्रतका भङ्ग नहीं मानता है । इसलिये भंगाभंग रूप होने से यह अतिचार है । इसी प्रकार विरुद्धराज्यातिक्रमके प्रथम अर्थ में भी शासनकी गड़बड़से लोभातिरेकके कारण भंग, उसकी व्यापारकी भावनासे अभंग सिद्ध होनेसे अतिचार है । ये चोर प्रयोग आदि पांचों ही अतिचार यदि साक्षात् किये जावें तो चोरीरूप हैं । कोई सामन्त अपने मालिकके यहाँ रहकर राजाके शत्रुके साथ उसको सहायता देनेकी जो क्रिया करता है वह उसका विरुद्ध राज्यातिक्रम कहलाता है ॥५०॥ ब्रह्मचर्यवकी भावना भाना ही रमण करनेकी इच्छारूप वेदनाका प्रतिकार होता है । स्त्रीसम्भोग नहीं इस प्रकारसे उत्पन्न नहीं हुआ है चित्तमें विश्वास जिसके ऐसा अहिंसा व्रतका पालक श्रावक स्वदारसन्तोष नामक व्रतको स्वीकार करे । भावार्थ - मेथुन संज्ञाकी वेदनारूपी रोगका इलाज ब्रह्मचर्य ही है, भोगोंकी ओर प्रवृत्त होना नहीं । भोग भोगनेसे यद्यपि खाज खुजानेके समान तत्काल शान्ति मालूम होती है, परन्तु उससे पुनः भोगकी तृष्णा बढ़ती है । इसलिये जब मैथुनको इच्छा हो तब ब्रह्मचर्यके विचारोंका आश्रय लेना चाहिये, परन्तु जिसके चित्तमें दृढ़ता नहीं है, वह स्वदारसन्तोष व्रतको धारण करे || ५१ ॥ जो गृहस्थ पापके भय से परस्त्री और वेश्याको मन, वचन, काय और कृत, कारित अनुमोदनासे न तो स्वयं सेवन करता है न परपुरुषोंसे सेवन करता है वह गृहस्थ स्वदारसन्तोष नामक अणुव्रतका पालक है । भावार्थ - परस्त्री और वेश्याका पापके डर से मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनसे न तो स्वयं सेवन करना और न दूसरोंसे सेवन कराना, केवल अपनी धर्मपत्नी में सन्तोष रखना स्वदार सन्तोष व्रत कहलाता है ||५२|| यदि स्त्रीसम्भोग सन्तापको करनेवाला तथा मूर्च्छाजनक, सहनशीलतानाशक और तृष्णाका बढ़ानेवाला होता है । फिर भी यदि यह स्त्रीसम्भोग सुख माना जाता है तो ज्वर में क्यों ईर्ष्या है ? अर्थात् ज्वरको भी सुख मानना चाहिये || ५३ || जब समरसरूप रसरङ्गको उत्पत्तिके बिना अर्थात् समान रतिके विना आलिङ्गन आदि कोई भी क्रिया सुखके लिये नहीं होती तब अनवस्थित चित्तपनेसे परस्त्रीको सेवन करनेवाले पुरुषके वह समरस रूप रसरंग अर्थात् समान रति कहाँसे हो सकती है । भावार्थ- समरसरसरङ्गोद्गमका अर्थ समान रति है । वह समान रति अपनी स्त्रीके समागमसे ही प्राप्त हो सकती है । परस्त्री सम्भोगमें उसके पति, कुटुम्बी, अन्य व्यक्ति तथा जनताका भय रहता है । इस कारण चित्तकी वृत्ति स्थिर नहीं रहती इस प्रकार परस्त्री-सेवनमें समान रति जनित सुखको सम्भावना नहीं । इसलिये इस समान रतिके बिना परस्त्रोके सम्बन्ध में की गई आलिंगन और चुम्बन आदि कोई भी क्रिया सुखरूप नहीं हो सकतो || ५४ || स्त्रीको सेवन करनेवाला पुरुष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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