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________________ सागारधर्मामृत - या दूसरेके द्वारा "तू चोरी कर" इस प्रकारको प्रेरणा करना अथवा जिसे पहले प्रेरण की थी उसको "तू ठीक कर रहा है" इस प्रकार अनुमोदना करना अथवा चोरोंको कुश, कैंची, गैती आदि चोरीके उपकरणोंको समर्पण करना वा बेचना इत्यादिको चोर प्रयोग कहते हैं। चोरसे यह कहना कि आज कल आप बेकार क्यों बैठे हो, यदि आपके पास भोजन वगैरह नहीं हो, तो हमसे ले जाओ। आप जो वस्तु चुराकर लाते हैं, यदि उसका कोई खरीददार आपको नहीं मिलता हो, तो मैं बेच दूंगा। इस प्रकारके वचनोंसे वह चोरको चोरीमें प्रवृत्त कराता है, परन्तु स्वयं अपनी कल्पनासे वह चोरी नहीं कर रहा है। वह अपने व्रतकी अपेक्षा रखते हुए चोरीके लिये चोरका सहायक होता है, इसलिये यह 'चोर प्रयोग' नामका अतिचार है। चोराहतग्रह-बिना प्रेरणा या बिना अनुमोदनाके चोर द्वारा स्वयं लाई वस्तुका ग्रहण करना चोराहृतादान कहलाता है। चोरीकी वस्तु खरीदनेवाला भी चोर है । परन्तु वह अपने मन में यह समझता है कि मैं स्वयं चोरी नहीं कर रहा हूँ, मैं तो कीमत देकर खरीद रहा हूँ। इस प्रकार व्रत सापेक्ष होनेसे तथा परिणामोंमें अदत्तादानकी ओर झुकाव होनेसे एकदेश भंगाभंग होने के कारण यह 'चोराहृतादान' नामका अतिचार है। अधिकहीनमानतुल--कपड़े आदिका व्यवहार नापने द्वारा और धान्य आदिका व्यवहार तोलने द्वारा होता है। अपने लिये लेते समय नापने तोलनेके बड़े उपकरणोंसे वस्तुका ग्रहण करना और दसरोंको देते समय छोटे बांट और गज आदिसे वस्तुका देना इस प्रकारके अप्रामाणिक व्यवहार को अधिकहीनमानतुल नामक अतिचार कहते हैं। क्योंकि ऐसा करनेसे दूसरेकी अदत्त वस्तुका एक प्रकारसे ग्रहण होनेसे एकदेशका भंग होता है और प्रत्यक्षमें भंग नहीं कर रहा है। उसके एकदेशसे व्रतका भंग और अभंग हो रहा है, इसलिये यह अतिचार है । प्रतिरूपकव्यवहृति-सदृश अल्पमल्य वाली वस्तुको बहुमूल्य वस्तुमें मिलाकर व्यवहार करना प्रतिरूपकव्यवहृति नामक अतिचार है। जैसे-घोमें चरबी मिलाकर बेचना, तेलमें मूत्र मिलाकर बेचना, असली सोने चांदो में कम कीमतके सोना चांदो मिलाकर बेचना और धानमें धानका भुसा मिलाकर बेचना इत्यादि । यहां पर भी एक प्रकारसे पर द्रव्यका अदत्तग्रहण होनेसे व्रतका भंग और व्रतको अपेक्षा मौजूद रहनेसे व्रतका अभंग मानकर अतिचार माना गया है। क्योंकि इस प्रकार अतिचार लगानेवालेकी भावना ऐसी होती है कि किसीका ताला तोड़ना या सेंध लगाना ही चोरी है, कम बढ़ तोलना और अधिक मूल्यकी वस्तुमें कम मूल्यकी वस्तु मिलाकर बेचना चोरी नहीं है, किन्तु व्यापार है । यह एक प्रकारको व्यापारी की कला है। ऐसी भावनासे अपनी समझसे वह व्रतभङ्ग नहीं कर रहा है। विरुद्धराज्यातिक्रम-राजाका राज्य छिन जानेपर अथवा एक राजाके ऊपर दूसरे राजाका आक्रमण होनेपर राज्यकी जो स्थिति होती है उसको विरुद्धराज्यातिक्रम कहते हैं। ऐसे अवसर पर शासन की गड़बड़ रहती है। अतः अति-लोभसे उचित न्यायमार्गका उल्लंघन करके कम कीमत की चीजको अधिक कीमतमें देना और अधिक कीमतको वस्तुको कम कोमतमें खरीदना विरुद्धराज्यातिक्रम नामका अतिचार है। अथवा परस्पर विरोधी राजाओंकी सीमा वा सेनाकी जो व्यवस्था होतो है उसका अतिक्रम करना अर्थात् अमुक सोमातक ही परस्पर विरोधी राजाओंके आदमी जा सकते हैं; सोमाका उल्लंघन करके नहीं जा सकते, इस प्रकारको व्यवस्थाका व्यापार आदिके लोभसे उल्लंघन करना, सीमाकी परवाह न करके दूसरेके राज्यमें आदमीको भेजना वा बुलाना विरुद्ध राज्यातिक्रम नामका अतिचार है। क्योंकि सीमाका उल्लंघन करते समय वहाँके राजाकी आज्ञा पालन नहीं की गई, वहाँ की भूमि पर जाना एक प्रकार अदत्तका आदान हो चुका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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