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________________ श्रावकाचार-संग्रह परस्वं चौरव्यपदेश-करस्थूलस्तेयव्रतो मृतस्वधनात् । परमुदकादेश्वाखिलभोग्यान्न हरेद्ददीत न परस्वम् ॥४६ संक्लेशाभिनिवेशेन तणमप्यन्यभर्तकम् । अदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्र वम् ॥४७ नास्वामिकमिति ग्राह्यं निधानादिधनं यतः । धनस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः । ४८ स्वमपि स्वं मम स्याद्वा न वेति द्वापरास्पदम् । यदा तदादीयमानं व्रतभङ्गाय जायते ॥४९ चोरप्रयोगचोराहतग्रहावधिकहोनमानतुलम् । प्रतिरूपकव्यवहति विरुद्धराज्येऽप्यतिक्रमं जह्यात्॥५० 'कूटलेखक्रिया' कहते हैं। न्यस्तांशविस्मत्रनुज्ञा-रखी धरोहर उठाने आये व्यक्तिसे धरोहरको संख्या भूल जाने पर यह कहना कि इतनी ही थी न, हमें भी इतनी हो की याद है, जितनी तुम बताते हो, ले जाओ, यह न्यस्तांशविस्मत्रनुज्ञा कहलाती है। मन्त्रभेद-अंग विकार तथा भौंहोंके निक्षेपणसे और के अभिप्रायका अनुमान लगाकर ईर्ष्यादिकके कारण प्रकट करना अथवा विश्वासपात्र मित्रादिकके साथ अथवा अपने साथ मंत्र किये हुए लज्जा उत्पादक अभिप्रायका प्रगट कर देना 'मन्त्रभेद' कहलाता है ।।४५।। चौर नामको करनेवाली स्थूल चोरीका है त्याग जिसके ऐसा पुरुष अर्थात् अचौर्याणुव्रतको पालन करनेवाला श्रावक मृत्युको प्राप्त हो चुके पुत्रादिकसे रहित अपने कुटुम्बी भाई वगैरहके धनसे तथा सम्पूर्ण लोगोंके द्वारा भोगने योग्य जल, घास आदि पदार्थोंसे भिन्न दूसरे धनको न तो स्वयं ग्रहण करे और न दूसरोंके लिये देवे। भावार्थ-घर फोड़ कर, ताला तोड़कर या और किन्हीं उपायोंसे परकी अदत्त चेतनाचेतनात्मक वस्तु न तो स्वयं ग्रहण करना और न दूसरोंको देना अचौर्याणुव्रत कहलाता है । जिसके यह व्रत होता है, वह अचौर्याणुवती कहलाता है । यह जिस पर अपना हक पहुँचता है ऐसे मृत कुटुम्बीके धनका तथा सर्व साधारणके लिये रुकावट रहित जलाशयके पानी और खानिकी मिट्टीको बिना दिये ले दे सकता है ॥४६॥ बिना दिये हुए अपनेसे भिन्न है स्वामी जिसका ऐसे अर्थात् दूसरेके तृणको भी रागादिकके आवेशसे ग्रहण करनेवाला अथवा दूसरेके लिये देनेवाला पुरुष निश्चयसे चोर होता है। भावार्थ-राग द्वेष पूर्वक दूसरेकी मालिकीके तिनकेको भी लेने वाला चोर है, इसमें कोई संशय नहीं। क्योंकि प्रमादके योगसे दूसरेकी वस्तुको स्वयं ग्रहण करने वा और को वितरण करने में चोरी होती है ॥४७॥ अचौर्याणवतके पालक श्रावकके द्वारा यह धन स्वामिहीन है ऐसा विचार करके जमीन और नदी आदिमें रखा हुआ धन ग्रहण करने योग्य नहीं है। क्योंकि इस लोकमें जिस धनका कोई स्वामी नहीं है ऐसे धनका साधारण स्वामी राजा होता है ।।४८। जिस समय अपना भी धन यह धन मेरा है अथवा नहीं इस प्रकारसे संशयका स्थान होता है उस समय ग्रहण किया गया अथवा दूसरेके लिये दिया गया अपना भी धन व्रतभङ्गके लिये होता है । भावार्थ-कभी अपनी वस्तुमें भी संशय हो जाता है कि यह वस्तु मेरी है या और की? ऐसी स्थितिमें व्रतीको उस संशयापन्न वस्तुका भी ग्रहण नहीं करना चाहिये और न उठा कर दूसरेको ही देना चाहिये । क्योंकि उस वस्तुके ग्रहण या दानसे उसका अचौर्यव्रत भंग हो जाता है ।।४९।। अचोर्याणुव्रतका पालक श्रावक चोरोका उपाय बतानेको और चोरके द्वारा लाई हुई वस्तु के खरीदनेको मान तथा तुलाके हीनाधिक रखनेको प्रतिरूपक-व्यवहारको और विरुद्ध-राज्यमें अतिक्रमको छोड़े । भावार्थ-चोरप्रयोग, चोराहतग्रह, हीनाधिकमानतुल, प्रतिरूपकव्यवहार और विरुद्धराज्यातिक्रम ये पांच अचौर्याणुव्रतके अतिचार हैं। चोरप्रयोग-चोरी करने वालेको स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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