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________________ सागारधर्मामृत यद्वस्तु यद्देशकालप्रमाकारं प्रतिश्रुतम् । तस्मिस्तथैव संवादि सत्यसत्यं वचो वदेत् ॥४१॥ असत्यं वय वासोऽन्धो रन्धयेत्यादि सत्यगम् । वाच्यं कालातिक्रमेण दानात्सत्यमसत्यगम् ॥४२ यत्स्वस्य नास्ति तत्कल् दास्यामीत्यादिसंविदा । व्यवहारं विरुधानं नासत्यासत्यमालपेत् ॥४३ मोक्तुं भोगोपभोगाङ्गमात्रं सावद्यमक्षमाः । ये तेऽप्यन्यत्सदा सर्व हिंसेत्युज्झन्तु वानृतम् ॥४४ मिथ्यादिशं रहोऽभ्याख्यां कूटलेख क्रियां त्यजेत् । न्यस्तांशविस्मनुज्ञा मन्त्रभेदं च तद्वतः ॥४५ बोले । भावार्थ-वचन चार प्रकारका है-सत्यसत्य, सत्यासत्य, असत्यसत्य और असत्यासत्य । इनमेंसे प्रारम्भिक तीन वचन हो बोलना चाहिये; जिससे लोकव्यवहार नहीं बिगड़ने पावे किन्तु अन्तिम असत्यासत्य वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि इसके बोलनेसे लोकव्यवहार बिगड़ जाता है ।।४०।। जो वस्तु जिस देश, काल, प्रमाण और आकार वाली प्रसिद्ध है उस वस्तुके विषयमें उसी देश, काल, प्रमाण और आकार रूप कथन करनेवाले सत्यसत्य वचनको बोलना चाहिये। भावार्थ-जो वस्तु जिस देश या कालमें जितनो संख्या वाली और जिस आकार हो उसको उसी देश वा उसी कालमें उतनी हो संख्या वाली और उसी आकार रूप कहना 'सत्यसत्य' वचन कहलाता है। यह वचन बोलने योग्य होता है ।।४१।। सत्याणवतके पालक थावकके द्वारा 'वस्त्रको बुनो, भातको पकाओ' इत्यादिक सत्यसूचक असत्य वचन तथा कालको मर्यादाका उल्लंघन करके देनेसे असत्यसूचक सत्य वचन बोलने योग्य है। भावार्थ-सत्यसूचक असत्य व वनको सत्यासत्य कहते हैं। हे कोरो ! तुम कपड़ा बुनो, हे भाई! तुम भात बनाओ इत्यादि असत्यकी ओर झुकने वाला सत्य असत्यसत्य कहलाता है। जैसे किसीका रुपया १५ दिनमें चुकानेका वायदा करके अधिक समयमें चकाना । ये दोनों प्रकारके वचन बोलने योग्य हैं । क्योंकि इनमें लोकव्यवहार नहीं बिगड़ता ॥४२॥ सत्याणुव्रतको पालन करनेवाला श्रावक जो वस्तु अपनी नहीं है वह वस्तु मैं तुम्हारे लिये प्रातः काल दूंगा, इत्यादि रूप प्रतिज्ञाके द्वारा लोकव्यवहारको बाधा देने वाले असत्यासत्य वचनको नहीं वोले ॥४३॥ जो केवल भोग और उपभोगके साधनभूत सावध वचनको छोड़नेके लिये असमर्थ हैं वे पुरुष भोगोपभोगके साधनभूत सावध वचनोंको छोड़ करके अन्य सब प्रकारके भी सावध वचनको हिंसा ऐसा मान कर सदैवके लिये त्याग करें ॥४४।। सत्याणुव्रतका पालक,श्रावक मिथ्यापदेशको, रहोऽभ्याख्याको, कूटलेखक्रियाको, न्यस्तांश विस्मत्रनुज्ञाको तथा मंत्रभेदको छोड़े। विशेषार्थ-मिथ्योपदेश, रहोऽभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यस्तांशविस्मत्रनुज्ञा और मन्त्रभेद ये पाँच सत्याणुव्रतके अतिचार हैं। सत्याणुव्रतीको इनका परित्याग करना चाहिये। मिथ्योपदेश–अभ्युदय और मोक्षसे सम्बन्ध रखने वाली क्रियाक विषयमें सन्देह होने पर 'किस प्रकारकी प्रवृत्ति करनी चाहिये' ऐसा प्रश्न होने पर समझदारीके बिना विपरीत मार्गका उपदेश देना अथवा प्रमादके वश होकर परपीडाकारक उपदेश देना अथवा विवादके उपस्थित होने पर स्वयं बा दूसरेके द्वारा किसी एकको ठगनेका उपाय बताना मिथ्योपदेश कहलाता है। परन्तु जानबूझ कर मिथ्योपदेश करना अनाचार है। रहोभ्याख्या-एकान्तमें स्त्री पुरुषोंकी आपसमें होने वाली चेष्टाओंको हास्य तथा विनोद आदिसे प्रगट करना उन दम्पती तथा दूसरोंके लिये रागवर्धक होनसे अतिचार है परन्तु किसी प्रकारको हठसे या रागादिकके आवेशसे उनकी चेष्टाओंका प्रगट करना अनाचार है। कूटलेखक्रिया-किसी ने न तो कहा ही है और न किया ही है केवल परप्रयोगसे जानकर किसीको ठगनेके लिये यह लिख देना कि उसने इस प्रकारसे कहा है अथवा किया है । कूटलेखक्रिया कहलाती है । अन्याचार्योंके मतसे दूसरोंके जैसे अक्षर या मुहर बनानेको DET F ree Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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