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________________ ३६ श्रावकाचार-संग्रह उद्योतनं महेनैकघण्टादानं जिनालये । असार्वकालिके मौने निर्वाहः सार्वकालिके ॥३७ आवश्यके मलक्षेपे पापकार्ये य वान्तिवत् । मौनं कुर्वीत शश्वद्वा भूयोवाग्दोषविच्छिदे ॥३८ कन्यागोक्ष्मालीक-कूटसाक्ष्यन्यासापलापवत् । स्यात्सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदे त्यजन् ॥३९ लोकयात्रानुरोधित्वात् सत्यसत्यादिवाक्त्रयम् । ब्रूयादसत्यासत्यं तु तद्विरोधान्न जातुचित् ॥४० करनेके लिये समर्थ होता है। भावार्थ-साधु तथा श्रावकके भोजनादिके समय निरतिचार मौनव्रतके पालनसे मनकी सिद्धि होती है, जिससे वे शुक्लध्यानके लिये समर्थ होते हैं। यथा वाक्सिद्धि भी प्राप्त होती है, जिसके प्रसादसे केवलज्ञान या दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश देनेका सामर्थ्य प्राप्त होता है ॥३६।। अपनी शक्तिके अनुसार किसी नियत कालके लिये ग्रहण किये गये मौनव्रतमें बड़े भारी उत्सव अथवा पूजनके साथ जिनमन्दिर में एक घंटाका दान करना उद्यापन है और जीवन पर्यन्तके लिये ग्रहण किये गये मौनव्रतमें उस मौनका निराकुल रीतिसे पालन करना उद्यापन ही है। भावार्थ-परिमित कालके लिये गृहीत मौनको असार्वकालिक मौनव्रत और यावज्जीवके लिये गृहीत मौनको सार्वकालिक मौनव्रत कहते हैं । असार्वकालिक मौनव्रतका ही उद्यापन किया जाता है । और उत्सव या जिनपूजन पूर्वक जिनमन्दिरमें एक 'घंटा' दान करना ही उसका उद्यापन है। सार्वकालिक मौनव्रतमें यावज्जीव मौनका पालन करना ही उद्यापन है ॥३७॥ श्रावक या मुनि वमनकी तरह सामायिक आदि छह आवश्यकोंमें मलमूत्रके क्षेपण करनेमें, पापके कार्यों में और स्नान, भोजन तथा मैथुन आदिकमें मौनको करे अथवा बहुतसे वचन सम्बन्धी दोषोंको दूर करनेके लिये निरन्तर ही मौनको करे ॥३८।। व्रती श्रावक कन्या-अलीक, गो. अलीक, पृथ्वी-अलीक, कूटसाक्ष्य और न्यासापलापकी तरह अपने तथा परको विपत्तिके हेतु सत्यको भी छोड़ता हुआ सत्याणुव्रतधारी कहलाता है। विशेषार्थ-कन्या-अलीक, गोअलीक, पृथ्वीअलीक, कूटसाक्ष्य और न्यासापलाप रूप वचनका नहीं बोलना तथा जिसके बोलनेसे अपने तथा दूसरेपर विपदा आनेकी सम्भावना हो ऐसा सत्य भी नहीं बोलना और बोलनेके लिये दूसरेको प्रेरणा भी नहीं करना सत्याणुव्रत कहलाता है। जिस कन्याके साथ किसी कुमारकी शादीकी बातचीत चल रही हो या होनेवाली हो उसके विषयमें विवाद उपस्थित होनेपर विपरीत बोलना 'कन्या-अलीक' कहलाता है। यहाँ 'कन्याशब्द' द्विपदका उपलक्षण है। इसलिये इसी प्रकारके अन्य द्विपदोंके सम्बन्धमें झूठ बोलना भी कन्या-अलीकमें गर्भित होता है । गायकी बिक्रीके समय या खरीदते समय कम दूध देनेवालीको अधिक दूध देनेवाली और अधिक दूध देने वालीको कम दूध देनेवालो बताना 'गो अलोक' नामक असत्य है। यहाँ पर 'गोशब्द' उपलक्षण है इसलिये सम्पूर्ण चौपायों सम्बन्धी झूठका ग्रहण करना चाहिये । खेत, जमीदारी वा वृक्ष वगैरह चीजोंके सम्बन्धका झूठ 'क्षमालीक' कहलाता है। रिश्वत वगैरह लेकर अथवा मात्सर्यसे झूठी गवाही देना 'कूटसाक्ष्य' कहलाता है। झूठी गवाही देनेवालेके द्वारा दूसरेके द्वारा किये गये पापोंका समर्थन होता है इसलिये यह धर्मविरुद्ध है। सुरक्षित रहनेको.इच्छासे किसीके पास जेवर वगैरह धरोहर रखना 'न्यास' कहलाता है। न्यासके सम्बन्धमें झूठ बोलना 'न्यासापलाप' कहलाता है। सत्याणुव्रतीको इन सबका त्याग करना चाहिए ॥३९॥ सत्याणुव्रतका पालक श्रावक लोकव्यवहारके विरुद्ध नहीं होनेसे सत्यसत्य आदिक तीन प्रकारके वचनोंको बोले । किन्तु लोकव्यवहारके विरुद्ध होनेसे असत्यासत्य वचनको कभी भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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