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________________ सागारधर्मामृत अतिप्रसङ्ग मसितुं परिवर्धयितुं तपः । व्रतबीजव्रतीभुंक्तेरन्तरायान् गृही भ्रयेत् ॥ ३० दृष्ट्वाऽऽर्द्रचर्मास्थिसुरामांसासृक्पूयपूर्वकम् । स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्क चर्मास्थिशुनकादिकम् ॥३१ श्रुत्वाऽतिकर्कशाक्रन्दविड्वरप्रायनिःस्वनम् । भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्यविवेचनैः ॥ ३२ संसृष्टे सति जीवद्भिर्जीवैर्वा बहुभिर्मृतैः । इदं मांसमिति दृष्ट-सङ्कल्पे चाशनं त्यजेत् ॥ ३३ गृद्ध हुङ्कारादिसञ्ज्ञां संक्लेशं च पुरोऽनु च । मुञ्चन्मौनमदन्कुर्यात् तपः संयम वृंहणम् ॥३४ अभिमानावने गृद्धिरोधाद् वर्धयते तपः । मौनं तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात् ॥३५ शुद्धमौनान्मनःसिद्ध्या शुक्लध्यानाय कल्पते । वाक्सिद्ध्या युगपत्साधुस्त्रैलोक्यानुग्रहाय च ॥३६ मनुष्य की लोलुपताकी सीमा नहीं रह सकेगी और वह भोजनके विषय में कितना शिथिलाचारी हो जावेगा, यह कहा नहीं जा सकता। इस प्रकार के दोषको 'अतिप्रसङ्ग' दोष कहते हैं । इच्छानिरोधको तप कहते हैं । भोजन करनेकी तैयारी हो चुकी है और ऐसे समय में यदि अन्तराय आ जाय तथा उसके आते ही अन्न, जल छोड़ दिया जावे तो स्वाभाविक रीतिसे इच्छानिरोध होकर श्रावकका तप बन जाता है । इसलिये अन्तराय टालकर भोजन करना चाहिये । इससे व्रतोंकी रक्षा होती है और तपकी वृद्धि होती है ||३०|| ब्रती गृहस्थ गीला चमड़ा, हड्डी, मदिरा, मांस, खून तथा पीब आदि पदार्थों को देख करके, रजस्वला स्त्री, सूखा चमड़ा, सूखी हड्डी, कुत्ता, बिल्ली व चांडाल आदिको स्पर्श करके, अत्यन्त कठोर शब्दोंको और विड्वर प्रायशब्दोंको सुनकर तथा त्यागी हुई वस्तुको खाकरके खाने योग्य पदार्थ से - अशक्य है अलग करना जिनका ऐसे त्रस आदि जीवोंसे अथवा तीन चार आदि मरे हुए जीवोंसे खाने योग्य पदार्थके मिल जानेपर और यह खाने योग्य पदार्थ मांसके समान है इस प्रकारसे मनके द्वारा सङ्कल्प होनेपर भोजनको छोड़े । विशेषार्थ — सिर काटो इत्यादि वचनको कर्कश वचन कहते हैं । हाय हाय इत्यादि वचनको आर्तस्वर कहते हैं । शत्रुकी सेना चढ़ आई इत्यादि आतङ्क उत्पादक वचनको विड्वरप्राय शब्द कहते हैं । जिनके कारण भोजन त्याज्य होता है इन्हें अन्तराय कहते हैं ||३१|| ३५ खाने योग्य पदार्थकी प्राप्तिके लिए अथवा भोजन विषयक इच्छाको प्रगट करनेके लिये हुँकारना और ललकारना आदि इशारोंको तथा भोजनके पीछे संक्लेशको छोड़ता हुआ भोजन करनेवाला व्रती श्रावक तप और संयमको बढ़ानेवाले मौनको करे । भावार्थ - मौनसे तप और संयमकी वृद्धि होती है । इसलिये व्रती श्रावक भोजन करते समय मौनका पालन करे । तथा किसी वस्तुकी लोलुपतासे 'हूँ हूँ' करना, अँगुलीका इशारा करना, खांसना, खखारना, भौंहें चलाना, सिर मटकाना इत्यादि इशारे का त्याग करे। लोग भोजन कराते समय परोसने आदि का ख्याल नहीं रखते अथवा परवाह नहीं करते इत्यादि रूपसे भोजनके आगे या पीछे संक्लेश नहीं करे ||३४| मौनस्वाभिमान की अर्थात् अयाचकत्व रूप व्रतको रक्षा होनेसे तथा भोजन विषयक लोलुपताके निरोधसे तपको बढ़ाता है और श्रुतज्ञानकी विनयके सम्बन्धसे पुण्यको बढ़ाता है । भावार्थमौनपूर्वक भोजन करनेसे मौनी के स्वाभिमानकी रक्षा होती है, याचनाजनित दोष नहीं लगता, सन्तोष के कारण भोजन विषयक लोलुपताका निरोध होता है इससे तपकी वृद्धि होती है तथा भोजनादिकमें मौन रखनेसे शब्दात्मक द्रव्यश्रुतकी विनय पलती है इसलिये कल्याणकी वृद्धि होती है ||३५|| श्रावक और मुनि निरतिचार मौनव्रत पालनसे मनकी सिद्धिके द्वारा शुक्लध्यानके लिये समर्थ होता है और वचनकी सिद्धिके द्वारा एक ही कालमें तीनों लोकोंके भव्यजीवोंका उपकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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