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________________ ३४ श्रावकाचार-संग्रह त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य रामं लिप्ये वधादिकृदर्घस्तदिति धितोऽपि । सौमित्रिरन्यशपथान् वनमालयकं दोषाशिदोषशपथं किल कारितोऽस्मिन् ॥२६ यत्र सत्पात्रदानादि किञ्चित्सत्कर्म नेष्यते । कोऽद्यातत्रात्ययमये स्वहितैषी दिनात्यये ॥२७ भुञ्जतेऽह्नः सकृद्वर्या द्विर्मध्याः पशुवत्परे । राज्यहस्तव्रतगुणान् ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः ॥२८ योऽत्ति त्यजन् दिनाद्यन्तमुहूर्ती रात्रिवत्सदा । स वयेतोपवासेन स्वजन्माध नयन कियत् ॥२९ सुना जाता है कि यदि रामचन्द्रजोको सुव्यवस्थित करके मैं फिरसे तुमको प्राप्त नहीं होऊ अर्थात् तुम्हारे पास नहीं आऊ तो मैं हिंसा आदिको करनेवाले पुरुषोंके पापोंसे लिप्त होऊँ इस प्रकारसे दूसरी प्रतिज्ञाओंको ग्रहण करनेवाला भी लक्ष्मण इस लोकमें वनमालाके द्वारा दूसरी प्रतिज्ञाओंसे रहित एक रात्रिमें भोजन करनेवाले पुरुषोंके पापांस लिप्त होने रूप प्रतिज्ञाको प्रेरित किये गये। भावार्थ-कैकेयीकी कुटिलतावश दशरथके द्वारा वनवास प्राप्त होनेपर जब लक्ष्मण और सीताके साथ राम वनको गये तब कुछ ही समय पूर्व कूर्चनगरके अधिपति राजा महीधरको कन्याके साथ लक्ष्मणका विवाह हुआ था। जब वनमालाको लक्ष्मणका वनवास ज्ञात हुआ तो वियोगसे विह्वल हो वह आत्मघातको उद्यत हुई। इसी समय अकस्मात् लक्ष्मणसे भेंट हो गई, तब उसने उनके साथ चलनेका आग्रह किया । तब वनमालाको समझाने लगे कि मैं रामचन्द्रजीको इष्टस्थानपर पहुंचाकर वापिस आता हूँ। परन्तु जब वह सन्तुष्ट नहीं हुई तब लक्ष्मण ने उसे विश्वास दिलानेके लिये गोहत्या स्त्रीवध आदिके पापोंसे लिप्त होनेकी अनेक शपथें खाई, किन्तु वनमालाने लक्ष्मणसे यह शपथ कराई कि "रामको इष्ट स्थानमें पहुंचाकर यदि मैं वापिस नहीं आऊं तो रात्रिभोजनके पापसे लिप्त होऊँ।" इससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीन कालमें रात्रिभोजन बड़ा भारी पाप समझा जाता था। इसलिये रात्रिभोजनका त्याग करना चाहिये ।।२६।। जिस रात्रिके समय सत्पात्रदान, स्तान और देवपूजा आदि कोई भी शुभकर्म नहीं किया जाता है उस पापपूर्ण रात्रिके समयमें कौन अपने हितको चाहनेवाला पुरुष भाजन करेगा? अर्थात् कोई भी नहीं करेगा। भावार्थ-रात्रिका समय अनेक दोषमय है। उसमें जैनोंको तो बात हो क्या, जैनेतरोंमें भी पात्रदान, स्नान, देवपूजा, आहुति श्राद्ध और भोजन आदि शुभकर्म नहीं किये जाते । ऐसी दशामें लोकद्वयमें आत्मकल्याणके इच्छुक जैन श्रावकको रात्रिमें भोजन भूल करके भी नहीं करना चाहिए ॥२७॥ उत्तम पुरुष दिनमें एक वार, मध्यम पुरुष दो वार और सर्वज्ञके द्वारा कहे गये रात्रिभोजनत्याग व्रतके गुणोंको नहीं जाननेवाले जघन्य पुरुष पशुओंकी तरह रात दिन खाते हैं ।।२८। जो पुरुष सदा ही रात्रिकी तरह दिनके आदि और अन्तिम मुहूर्तको छोड़ता हुआ भोजन करता है अपने आधे जन्मको उपवासके द्वारा व्यतीत करनेवाला वह पुरुष कितना प्रशंसित किया जावे ? अर्थात् वह अत्यधिक प्रशंसाका पात्र है ।।२९॥ व्रतोंको पालन करनेवाला गृहस्थ अतिप्रसङ्ग दोषको दूर करनेके लिये तथा तपको बढ़ानेके लिए व्रतरूपो वीजकी रक्षा करनेके लिये बाड़के समान व्रतोंकी रक्षाके कारणभत भोजनके अन्तरायोंको पाले । विशेषार्थ-जैसे खेतकी रक्षा उसके चारों तरफ की गई बाड़से होतो है। उसी प्रकार रात्रिभोजन त्यागरूप व्रतकी रक्षा उसके अन्तरायोंको दूर करनेसे होती है। यदि व्रती श्रावक इन अन्तरायोंको नहीं पालेगा तो उसके अतिप्रसङ्ग दोष आवेगा और उसके जीवन में तपकी वृद्धि नहीं हो सकेगी। भोजन करते समय शिथिलताके कारण अन्तरायका लक्ष्य नहीं रखा जायगा, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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