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________________ सागारधर्मामृत पुद्गलक्षेपणं शब्दश्रावणं स्वाङ्गदर्शनम् । प्रेषं सोमबहिर्देशे ततश्चानयनं त्यजेत् ॥२७ एकान्ते केशबन्धादिमोक्षं यावन्मुनेरिव । स्वं ध्यातुः सर्वहिंसादित्यागः सामायिकव्रतम् ॥ ८ वाला व्यक्ति देगाव काशिक कहलाता है । इस व्रत के पालनसे सीमाके बाहर सर्वदेशरूपसे पापके त्याग करनेका अभ्यास होता है या शिक्षा मिलती है। तथा यह व्रत परिमित कालके लिये धारण किया जाता है, दिग्वतके समान यावज्जीवन के लिये नहीं । इसलिये इसे गिक्षाव्रत कहना युक्तिसंगत है। दिग्व्रत समान इस व्रत में भी सीमाके बाहर विद्यमान वस्तु सम्बन्धी लोभादिकको निर्वृत्ति हो जाने के कारण स्थूल और सूक्ष्म हिसादिक का सब प्रकारसे त्याग हो जाता है । यही इसका प्रत्यक्ष फल है । और परभवमें आज्ञा, ऐश्वर्य आदिक सुख सम्पत्तिकी प्राप्ति होती है । इसलिये यह व्रत अवश्य पालन करने योग्य है, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है ||२६|| देशावकाशिकव्रतकी निर्मलता चाहने वाला श्रावक मर्यादाके विषयभूत प्रदेश से बाहर के प्रदेश में पत्थर आदि फेंकने को, शब्दके सुनाने को, अपने शरीरके दिखानेको, किसी मनुष्यके भेजनेको और मर्यादाके बाहरके प्रदेशमे किसी वस्तुके बुलानेको छोड़े । विशेषार्थ - पुद् गलक्षेपण, शब्दश्रावण, स्वांगदर्शन, प्रेष और आनयन ये पाँच देशावका शिकव्रतके अतिचार हैं । पुद्गरक्षेपण - मर्यादाके बाहर स्वयं तो नहीं जाना, परन्तु अपने कार्य के लोभसे मर्यादा के बाहर व्यापार करनेवालोंको प्रेरणाके हेतु ढेला और पत्थर आदि फेंक कर संकेत करना । शब्दश्रावण - सीमाके बाहर रहने वाले, मनुष्योंको कार्य के लिये अपने पास बुलाने आदिके हेतु उनको सुन पड़े इस प्रकार चुटकी बजाना और ताली पीटना आदि । स्वाङ्गदर्शन - किसी कार्य के लिए सोमाके बाहरसे जिनको बुलाना है उनको शब्दोच्चारणके बिना अपने शरीर अथवा शरीरके अवयव दिखाना आदि । प्रष्यप्रयोग - स्वयं मर्यादा के भीतर रहकर कार्य के लिए "तुम यह कार्य करो" ऐसा कहकर मर्यादाके बाहर नौकर वगैरहको भेजना | प्रेष्यांनयन- स्वयं मर्यादाके भीतर रहकर "तुम यह लाओ" इस प्रकार कहकर मर्यादाके बाहर से किसी वस्तुको बुलाना । श्लोक में आये हुए "च" पदसे यह भी ध्वनित होता है कि यदि कोई नौकर मर्यादाके बाहर स्थित है तो उसे किसी कार्यकी आज्ञा करना भी अतिचार है ||२७|| केशबन्ध और मुष्टिबन्ध आदिके छोड़ने पर्यन्त एकान्त स्थान में मुनि के समान अपने आत्माको चिन्तवन करनेवाले शिक्षाव्रती श्रावकका जो हिंसादिक पाँचों ही पापोंका त्याग वह सामायिक शिक्षाव्रत कहलाता है । विशेषार्थ - केशबन्ध, मुष्टिबन्ध और वस्त्रबन्ध पर्यन्त सम्पूर्ण रागद्वेष और हिंसादिक पापोंका परित्याग कर अपने आत्माका ध्यान करना सामायिक शिक्षाव्रत कहलाता है । सम = रागद्वेषकी निवृत्ति, अय = प्रशमादिरूपज्ञानका लाभ ये दोनों जिसके प्रयोजन हैं उसे सामायिक शिक्षाव्रत कहते हैं । अथवा रागद्वेष में माध्यम भाव रखना सामायिक है अथवा समय = आप्तोपदेश, उसमें नियुक्त कर्म ( व्यापार ) को सामायिक कहते हैं । अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे जिन भगवान् के पूजन, अभिषेक, स्तवन और जापको सामायिक कहते हैं । और निश्चयसे आत्मध्यानको सामायिक कहते हैं । अथवा विधिपूर्वक सामायिकके समय तक ( केशबन्धादि ) पर्यन्त सम्पूर्ण रागद्वेषका परित्याग कर प्रशम और संवेग आदि रूप ज्ञानका लाभ होना जिसकी आराधनाका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं । देशावका शिकव्रतमें मर्यादासे बाहरके क्षेत्रमें सर्व पापोंकी निवृत्ति होती है और सामायिक में सर्वत्र सर्व पापों की निर्वृत्ति होती है यही इन दोनों में अन्तर है । इसकी विधिमें जो केशबन्धादिकसे मोक्षपर्यन्त सामायिक करनेका विधान किया है उसका Jain Education International ५३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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