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________________ तृतीय अध्याय वेशयमध्नकषायक्षयोपशमतारतम्यवशतः स्यात् । दर्शनिकायेकादशदशावशो नैष्ठिकः सुलेश्यतरः ॥१ वर्शनिकोऽथ वतिकः सामयिको प्रोषधोपवासी च । सच्चित्तदिवामैथुन-विरतो गृहिणोऽणुयमिषु हीनाः षट् ॥२ अब्रह्मारम्भपरिग्रहविरता वणिनस्त्रयो मध्याः ।अनुमतिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥३ दुर्लेश्याभिभवाज्जातु विषये क्वचिदुत्सुकः । स्खलन्नपि क्वापि गुणे पाक्षिकः स्यान्न नैष्ठिकः ॥४ तद्वदनिकादिश्च स्थैर्य स्वे स्वे व्रतेऽवजन् । लभते पूर्वमेवादि व्यपदेशं न तूत्तरम् ॥५ प्रारब्धो घटमानो निष्पन्नश्चाहतस्य देशयमः । योग इव भवति यस्य त्रिधा स योगीव देशयमी ॥६ देशसंयमका घात करनेवाली कषायोंके क्षयोपशमकी क्रमशः वृद्धिके वशसे श्रावकके दर्शनिक आदि ग्यारह संयमस्थानोंके वशीभूत और उत्तम लेश्यावाला व्यक्ति नैष्ठिक कहलाता है। विशेषार्थ-जिसके देशसंयमकी घातक अप्रत्याख्यानावरण कषायका उत्तरोत्तर अधिक क्षयोपशम होता है, जिसकी लेश्या उत्तरोत्तर विशुद्ध होती है और इसी कारण जो श्रावकके दर्शनिक आदि ग्यारह संयमस्थानोंमेंसे किसी एकका पालन करता है वह 'नैष्ठिक' कहलाता है। निर्मल दर्शनवालेको दर्शनिक और निर्मल व्रतवालेको व्रतिक कहते हैं। अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम और लेश्याका नैर्मल्य आगे-आगेकी प्रतिमाओंमें उत्तरोत्तर अधिक होता है ॥१॥ दर्शनिक, व्रती, सामयिकी, प्रोषधोपवासी और सच्चित्तविरत तथा दिवामैथुनविरत ये छह श्रावक देशसंयमधारक श्रावकोंमें जघन्य गृहस्थ हैं । अब्रह्मविरत, आरम्भविरत और परिग्रहविरत ये तीन श्रावक मध्यम तथा ब्रह्मचारी हैं तथा अनुमतिविरत और उद्दिष्टविरत ये दो श्रावक उत्तम तथा भिक्षुक हैं। भावार्थ-दर्शनिक और व्रतिक आदिक प्रथम छह प्रतिमाधारी जघन्यश्रावक और गृहस्थ कहलाते हैं। सप्तम, अष्टम और नवम प्रतिमाधारो मध्यम श्रावक और ब्रह्मचारी कहलाते हैं। तथा दशम और एकादश प्रतिमाधारी उत्तम श्रावक और भिक्षु कहलाते हैं ॥२-३॥ कृष्ण, नील और कापोत इन लेश्याओंमेंसे किसी एकके वेगसे किसी समय किसी इन्द्रियके विषयमें उत्कण्ठित तथा किसी मूलगुणके विषयमें अतिचार लगानेवाला गृहस्थ पाक्षिक श्रावक कहलाता है, नैष्ठिक नहीं। भावार्थ-परिणामोंमें कदाचित् कृष्ण, नील और कापोत लेश्याके वेगके आ जानेसे यदि नैष्ठिक श्रावक पंचेन्द्रियोंके किसी एक विषयमें उत्सुक हो जावे अथवा उसके किसी मूलगुणमें अतिचार लग जावे तो वह नैतिक संज्ञासे च्युत होकर पाक्षिक कहलाता है ॥४॥ नैष्ठिकश्रावककी तरह अपने-अपने व्रतोंमें स्थिरताको प्राप्त नहीं होनेवाले दर्शनिक आदि श्रावक भी वास्तव में पूर्व ही संज्ञाको पाता है किन्तु आगेकी संज्ञाको नहीं। भावार्थ-नैष्ठिक श्रावक अपनी जिस प्रतिमामें दोष लगाता है उससे च्युत होकर उससे नीचेकी प्रतिमावाला हो जाता है । व्यवहारसे भले ही उसे उस प्रतिमावाला मान लिया जावे परन्तु निश्चयसे वह जिस प्रतिमाके कर्तव्योंमें परिपक्व होता है उसी प्रतिमाका धारक कहा जायगा ।।५।। अरिहन्तके उपासक जिस श्रावकका देशसंयम प्रारब्ध घटमान और निष्पन्न तीन प्रकार योग या समाधिकी तरह प्रारब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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