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________________ सागारधर्मामृत स्थूललक्षः कियास्तीर्थयात्राद्या दृग्विशुद्धये । कुर्यात्तथेष्टभोज्याद्याः प्रीत्या लोकानुवृत्तये ॥८४ अको तप्यते चेतश्चेतस्तापोऽशुभास्स्रवः । तत्तत्प्रसादाय सदा श्रेय से कीर्तिमर्जयेत् ॥८५ परासाधारणान्गुण्यप्रगण्यानघमर्षणान् । गुणान् विस्तारयेन्नित्यं कीर्ति विस्तारणोद्यतः ॥८६ सैषः प्राथमकल्पिको जिनवचोऽभ्यासामृतेनासकृन्निर्वेदद्रुममावपन् शमरसोद्गारोदधुरं विश्वति । पार्क कालिकमुत्तरोत्तरमहान्त्येतस्य चर्याफलान्यास्वाद्योद्यतशक्तिरुद्धचरितप्रासादमारोहतु ||८७. २१ रहेगा इसलिये सुखी प्राणोको मार डालना चाहिये। यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि मरण सबसे बड़ा दुःख है, मरणके दुःखसे सुखीके सुख में बाधा आती है। क्योंकि मृत्युके दुःख से दुर्ध्यानका होना सम्भव है और दुर्ध्यानसे मरा प्राणी नरकके दुःखोंको पाता है ||८३ || । व्यवहारको प्रधान रूपसे माननेवाला गृहस्थ सम्यग्दशनकी विशुद्धिके लिये तीर्थयात्रा आदिक क्रियाओंको और लोगोंको अपने अनुकूल करने के लिये हर्षपूर्वक प्रीतिभोज आदिक क्रियाओंको भी करे । भावार्थ व्यवहारको मुख्य माननेवाला गृहस्थ सम्यग्दर्शनकी विशुद्धिके लिये तोर्थयात्रा आदिक करे और लोगोंको अपने अनुकूल करनेके लिये प्रीतिभोज वगैरह भी करावे || ८४ ॥ अकीर्तिसे चित्त संक्लेशको प्राप्त होता है और चित्तका संक्लेश या सन्ताप पाप कर्मोंके आस्रवका कारण होता है । इसलिये गृहस्थ पुण्य के हेतु चित्तकी प्रसन्नताके लिये अथवा पुण्य के कारणभूत चित्तकी प्रसन्नता के लिये सदैव कीर्तिको उपार्जन करे अर्थात् कमावे । भावार्थ - कीर्ति से मन प्रफुल्लित रहता है और मनके प्रफुल्लित रहसे श्रेय ( पुण्यास्रव ) होता है । तथा मनका प्रफुल्लित न रहना ( सन्ताप रहना । अशुभास्रवका कारण है । इसलिये कीर्तिका उपार्जन करना चाहिए ॥ ८५॥ कीर्तिका विस्तार करनेमें तत्पर गृहस्थ दूसरे पुरुषोंमें नहीं पाये जानेवाले गुणवान पुरुषोंके द्वारा सम्माननीय और पापोंके नाश करनेवाले दान तथा शील आदिक गुणोंको सदैव बढ़ावे । भावार्थ -- दान, सत्य, शोच और सत्स्वभाव इन चारोंसे कीर्ति प्राप्त होती है । कीर्तिके इच्छुक व्यक्तिके ये चारों बातें दूसरोंकी अपेक्षा असाधारण विशेषताको लिये, बड़े-बड़े गुणीजनोंके द्वारा उल्लेखनीय तथा स्वार्थके लिए न होकर निष्पापवृत्तिसे होना चाहिये । इस प्रकार से असाधारण, गणन और निष्पापवृत्तिसे दान, सचाई, शौच और सत्स्वभावसे कीर्तिकी प्राप्ति होती है ॥८६॥ जिनेन्द्र भगवान् के वचनोंके अभ्यासरूप अमृतके द्वारा वैराग्यरूपी वृक्षको निरन्तर सींचनेवाला वह पाक्षिक श्रावक वैराग्यरूपी वृक्षके प्रशमसुख रूपी रसको अभिव्यक्तिके द्वारा लबालब भरे. हुए कालकृत आत्मीय परिणतिरूपी पाकको धारण करनेवाले तथा आगे-आगे बड़े-बड़े ऐसे दर्शनिकादी प्रतिमारूपी फलोंको आस्वादन करके उत्पन्न हुई है शक्ति जिसके ऐसा अर्थात् सामर्थ्यवान् होता हुआ मुनिधर्मरूपी प्रासादको आरोहण करे अर्थात् मुनिधर्मरूपी प्रासादके ऊपर चढ़े | भावार्थ- पाक्षिक श्रावक जिनभगवान्‌ के उपदेशरूपी अमृतके अनुभवसे संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर वैराग्यरूपी वृक्षके समता सुखरूपी रसकी अभिव्यक्ति सहित आत्मीय परिणतिको धारण करनेवाले और आगे-आगे बड़े-बड़े दर्शनिक आदि प्रतिमारूपी फलोंका अनुभव करके मुनिधर्म पालन करनेकी योग्यता प्राप्त कर मुनिधर्मरूपी प्रासादपर आरोहण करे ॥८७॥ इति द्वितीयोऽध्यायः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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