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________________ २० श्रावकाचार-संग्रह पञ्चम्यादिविधि कृत्वा शिवान्ताभ्युदयप्रदम् । उद्योतयेद्यथासम्पन्निमित्त प्रोत्सहेन्मनः ॥७८ समीक्ष्य तमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नतः । छिन्नं दर्यात्प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमञ्जसा ॥७९ सङ्कल्पपूर्वकः सेव्ये नियमोऽशुभकर्मणः । निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥८० न हिस्यात्सर्वभूतानोत्याष धर्म प्रमाणयन् । सागसोऽपि सदा रक्षेच्छक्त्या किं नु निरागसः ॥८१ आरम्भेऽपि सदा हिंसां सुधीः साङ्कल्पिकी त्यजेत् । घ्नतोऽपि कर्षकादुच्चैः पापोऽनन्नपि धीवरः ॥८२ हिनदु खिसुखिप्राणिघातं कुर्यान्न जातुचित् । अतिप्रसङ्गश्वभ्राति-सुखोच्छेदसमीक्षणात् ॥८३ . आना शक्य न हों तब तक या तबसे उन विषयोंको फिरसे उन विषयों में प्रवृत्ति न होनेके समय तक छोड़ देना चाहिये। क्योंकि व्रतसहित मरा हुआ व्यक्ति परलोकमें सुखी होता है ।।७७।। मोक्षपर्यन्त इन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदोंको प्राप्त करानेवाले पंचमी, पुष्पाञ्जली, मुक्तावली तथा रत्नत्रय आदिक व्रत विधानोंको करके अपनी आर्थिक शक्तिके अनुसार उद्यापन करना चाहिये, क्योंकि नैमित्तिक क्रियाओंके करनेमें मन अधिक उत्साहको प्राप्त होता है ॥७८॥ कल्याणके इच्छुक व्यक्तियोंके द्वारा व्रत भली भांति देश, काल, स्थान और सहायक आदिकको विचार करके ग्रहण किया जाना चाहिये। गृहीत व्रत प्रयत्नसे पालन किया जाना चाहिये। तथा मदके आवेशसे अथवा असावधानीसे भग्न हुआ व्रत जल्दी ही फिरसे धारण किया जाना चाहिये ॥७९॥ सेवनीय स्त्री आदिक विषयोंमें सकल्पपर्वक नियम करना हिंसा आदिक अशभ कार्योंसे निवृत्त होना और पात्रदान आदिक शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना व्रत कहलाता है ।।८०॥ त्रस और स्थावर किसी भी प्राणीको नहीं मारना चाहिये इस प्रकार ऋषिवचनको प्रमाण माननेवाला गृहस्थ धर्मके निमित्त सदैव अपनी शक्तिके अनुसार अपराधियोंकी भी रक्षा करे। फिर निरपराधियोंके लिए कहना ही क्या है ? अर्थात् उसकी तो रक्षा करनी ही चाहिए ॥८१॥ हिंसाकै फलका जानकार व्यक्ति खेती आदिक कार्यों में भी सङ्कल्पी हिंसाको सदैव छोड़ देवे क्योंकि असङ्कल्पपूर्वक बहुतसे प्राणियोंका घात करनेवाले भी किसानसे जीवोंके मारनेका संकल्प करके उनको नहीं मारने वाला भो धोवर विशेष पापी होता है ।।८२॥ कल्याणको चाहनेवाला गृहस्थ अतिप्रसङ्ग दोष, नरक सम्बन्धी दुःख तथा सुखके नाशका कारण होनेसे हिंसक, दुखी और सुखी प्राणियोंके घातको कभी भी नहीं करे। विशेषार्थ-हिंसककी हिंसा उचित माननेसे अतिप्रसंग दोष आता है। दुखी प्राणोकी हिंसा करनेसे नरकको प्राप्ति होती है । सुखी प्राणीकी हिंसा करनेसे सुखका विनाश होता है इसलिये हिंसक, दुखी और सुखी प्राणीकी भी हिंसा त्याज्य है । कोई कहते हैं कि सिंहादिक क्रूर प्राणीको मार डालनेसे अनेकोंकी रक्षा होती है, इसलिये धर्म भी होता है और पापकी प्रवृत्ति भी कम होती है. यह मानना ठीक नहीं। क्योंकि यदि हिंसककी हिंसा करना धर्म है तो हिंसकोंका हिंसक भी तो हिंसक है उसको भी मार डालना चाहिये । इस प्रकार अतिप्रसङ्ग दोष आवेगा और समस्त प्राणियोंका मूलोच्छेद हो जावेगा । इसलिये करको भी नहीं मारना चाहिये । दयासे ही धर्मकी वृद्धि और पापकी हीनता होतो है, क्र र जीवोंको मारनेसे नहीं। कोई कहते हैं कि दुखी प्राणीको मार डालना चाहिये जिससे उसकी वेदना मिट जावे । यह मानना ठीक नहीं। क्योंकि दुखी अवस्थामें दुखी होकर आकुलता सहित मरनेवाले नरकमें जाते हैं। इसलिये उनके दुःखोंका अन्त नहीं होता, किन्तु नरकमें अधिक दुःखोंकी प्राप्ति होती है। इसलिये दुखी प्राणीका भी वध नहीं करना चाहिये । कोई कहते हैं कि यदि किसी सुखी प्राणीको मार दिया जाय तो वह आगे भी सुखी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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