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सागारधर्मामृत
जिनधर्मं जगद् बन्धूमनुबद्धुमपत्यवत् । यतीञ्जनयितुं यस्येत तथोत्कर्षयितुं गुणैः ॥७१ श्रेयो यत्नवतोऽस्त्येव कलिदोषाद् गुणद्युतौ । असिद्धावपि तत्सिद्धौ स्वपरानुग्रहो महान् ॥७२ after: विकाश्चापि सत्कुर्याद् गुणभूषणाः । चतुविधेऽपि संघे यत् फलत्युप्तमनल्पशः ॥७३ धर्मार्थकामसीचो यथौचित्यमुपाचरन् । सुघीस्त्रिवर्गसम्पत्त्या प्रेत्य चेह च मोदते ॥७४ सर्वेषां देहिनां दुःखाद बिभ्यतामभयप्रदः । दयार्द्रा दातृधौरेयो निर्भीः सौरूप्यमश्नुते ॥७५ भूत्वाऽऽश्रितानवृत्त्याऽऽर्तान् कृपया नाश्रितानपि । भुञ्जीतान्यम्बुभैषज्यताम्बूलैलादि निश्यपि ॥७६ यावन सेव्या विषयास्तावत्तानाप्रवृत्तितः । व्रतयेत्सव्रतो दैवान्मृतोऽमुत्र सुखायते ॥७७
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नामक मुनि ) शास्त्रकी पूजा और दानके प्रभावसे द्वादशाङ्गके ज्ञानको प्राप्त हुआ था || ७० || उत्तम गृहस्थ पुत्र के समान संसारके प्राणियोंके उपकारक जिनधर्मको परम्परासे चलाने के लिये और मुनियों को पैदा करनेके लिये प्रयत्न करे और विद्यमान मुनियोंको श्रुतज्ञान आदिक गुणोंके द्वारा उत्कृष्ट करनेके लिये प्रयत्न करे । भावार्थ- जैसे अपने वंशकी परम्परा चलानेके लिये सन्तानको उत्पन्न करने और उसे गुणी बनानेका प्रयत्न किया जाता है उसी प्रकार जगत् के सच्चे बन्धु जैनधर्मकी परम्परा चलानेके लिये नये मुनियों की उत्पत्तिके लिये तथा जो वर्तमान में मुनि हैं उनमें श्रुतज्ञान आदिकको वृद्धिके लिये प्रयत्न करना चाहिये ||७१|| कलिकालके प्रभावसे गुणोंका विकास करनेके विषय में सफलता न होनेपर भी प्रयत्न करनेवाले व्यक्तिके पुण्य होता ही है और मुनियों में गुणोंके विकासकी सफलता होनेपर बड़ा भारी अपना तथा दूसरेका उपकार होता है । विशेषार्थ - सच्चे त्यागी व्रतीके निमित्तसे ही धर्मको स्थिति, रक्षा और वृद्धि तथा सच्ची प्रभावना होती है । इसलिये त्यागी संस्थाके निर्माण करने और गुणी बनानेका सदैव प्रयत्न करना चाहिए || ७२ ॥
उत्तम गृहस्थ गुण ही हैं भूषण जिन्होंके ऐसी आर्यिकाओंको और श्राविकाओं को भी सत्कृत करे क्योंकि चार प्रकारके सङ्घ में भी दिया गया आहार आदिक दान अधिक फल देता है । भावार्थ - गुणवती आर्यिका और श्राविकाको भी पात्र समझकर शास्त्रोक्त विधिसे दान देना चाहिए क्योंकि चार प्रकारके संघमें दान दिया हुआ धन भी मनोवांछित फल देता है || ७३|| धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ के साधनमें सहायक पुरुषोंको यथा योग्य उपकार करनेवाला बुद्धिमान् पाक्षिक श्रावक धर्म, अर्थ और कामकी सम्पत्तिसे इस लोकमें और परलोकमें आनन्दित होता है ||७४ || शारीरिक तथा मानसिक दुःखसे डरने वाले सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय दान देनेवाला आहारादिक दान दाताओंमें प्रधान और दयालु गृहस्थ भयरहित होता हुआ सुन्दरता, सौभाग्य और तेज आदिक गुणोंको पाता है ||७५ | गृहस्थ अपने आश्रित मनुष्य और तिर्यञ्चोंको तथा आजीविकाके न होनेसे दुखी अनाश्रित मनुष्य वा तिर्यंचोंको भी दयासे भोजन कराकर दिनमें ही भोजन करे और जल, दवा, पान और इलायची आदिक रात्रिमें भी खा सकता है । भावार्थ- पाक्षिक श्रावक आजीविकाके साधनमें असमर्थ अतएव अपने आश्रित मनुष्य और तिर्यञ्चोंका कर्त्तव्य बुद्धिसे तथा जो अपने आश्रित नहीं हैं, ऐसे व्यक्तियोंका दया बुद्धिसे दिन में भरण पोषण कर स्वयं भी दिनमें ही भोजन करे, रात्रिमें भोजन नहीं करे । परन्तु अशक्यावस्थामें पानी, पान, सुपारी, इलायची और दवाई वगैरह यदि रात्रिमें भी खाना पड़े तो खा सकता है ||७६ || पंचेन्द्रिय सम्बन्धी स्त्री आदिक विषय जब तक या जबसे सेवनमें
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