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श्रावकाचार-संग्रह सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वाङ्गष्ठमास्तितः को रिङ्गन्ति ततः पदैः कलगिरो यान्ति स्खद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागुणभृतस्तारुण्यभोगोद्गताः
सप्ताहेन ततो भवन्ति सुदृगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥६८ तपाश्रुतोपयोगीनि निरवद्यानि भक्तितः । मुनिभ्योऽन्नौषधावासपुस्तकादीनि कल्पयेत् ॥६९
भोगित्वाद्यन्तशान्ति-प्रभुपदमुदयं संयतेऽनप्रदानाच्छ्रोषेणो रुग्निषेधाद् धनपतितनया प्राप सवौषद्धिम् । प्राक्तज्जषिवासावनशुभकरणात सूकरः स्वर्गमयं,
कौण्डेशः पुस्तकारी-वितरणविधिनाप्यागमाम्भोधिपारम् ॥७० देवोंके तथा चक्रवादिकके पदोंको भोगता हुआ मोक्षको पाता है। किन्तु सम्यक्त्व और व्रत रहित अपात्रमें दान देना निष्फल होता है। विशेषार्थ-दि० मुनि उत्तमपात्र, अणुव्रती श्रावक मध्यमपात्र, अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्यपात्र तथा सम्यक्त्वरहित द्रालगी मुनि या श्रावक कुपात्र कहलाते हैं और जो न तो भावसे मुनि, श्रावक व सम्यग्दृष्टि हैं और न द्रव्यसे, वे सब अपात्र हैं ॥६७।। भोगभूमिके जीव ऊपरको मुख कर चित्त लेटे हुए जन्मके अनन्तर एक सप्ताह तक अपने अंगूठेको चूसते हैं। इसके अनन्तर सात दिन तक पृथ्वी पर रेगते हैं, इसके बाद सात दिन तक मनोहर वचन बोलते हुए डगमगाते हुए पैरों द्वारा गमन करते हैं। इसके बाद एक सप्ताह में स्थिर पैरोंसे गमन करने लगते हैं । इसक अनन्तर एक सप्ताहमें गीतनृत्य आदिक कलाओ और सौंदर्य आदिक गुणोंके धारी हो जाते हैं। इसके बाद एक सप्ताहमें नवयौवन अवस्था वाले तथा इष्ट विषयोंके सेवन करनेवाले हो जाते हैं। और इसके अनन्तर एक सप्ताहमें सम्यक्त्व ग्रहण करनेके विषयमें भी योग्य हो जाते हैं ।।६८॥
उत्तम गृहस्थ मुनियोंके लिये दोषोंसे रहित और तप तथा श्रुतज्ञानके उपकारक आहार, औषधि, वसतिका तथा शास्त्रादिक पदार्थों को भक्तिसे देवे। भावार्थ-दिगम्बर जैन साधुओंके लिये उद्गम और उत्पादन आदि आहारके दोषोंसे रहित तथा साधुके तप और स्वाध्यायके उपयोगमें सहायक होनेवाले अन्न, औषधि, वसतिका, शास्त्र और पीछी कमण्डलु आदि देना चाहिए ॥६९।। मुनिके लिये विधिपूर्वक आहारदान देनेसे श्रोषेणराजा उत्तमभोगभूमिमें उत्पन्न होना है आदिमें और शान्तिनाथ तीर्थंकरके पदको पाना है अन्तमें जिसके ऐसे अभ्युदयको प्राप्त हुआ। धनपति सेठकी वृषभसेना नामक पुत्री सर्वौषधिनामक ऋद्धिको प्राप्त हुई। सूकर पूर्व तथा इस जन्ममें मुनियोंके निवास व उनकी रक्षा करनेके विषयमें शुभ परिणामोंसे पहले सौधर्मस्वर्गको प्राप्त हुआ और कौण्डेश नामक मुनि शास्त्रोंकी विधिपूर्वक पूजा करने तथा उनका दान देनेसे द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञानके पारको प्राप्त हुए । विशेषार्थ-श्रोषेणराजाने आदित्यगति और अरिजय नामक चारण ऋद्धिधारक मुनियोंको आहार दान दिया था, जिसके प्रभावसे उन्हें प्रारम्भमें भोगभूमि तथा अन्तमें शान्तिनाथ तीर्थङ्करके पदका अभ्युदय प्राप्त हुआ था । धनपति सेठकी सुपुत्री वृषभसेनाने मुनिराजके लिये औषधिदान दिया था जिससे उसे सर्वोषध ऋद्धि प्राप्त हुई थी। एक सूकर पहले भवमें मुनिराजके लिये आवासदानके शुभ परिणामसे तथा अपने वर्तमान भवमें मुनिराजके निवास स्थानकी रक्षाके भावसे प्रथम स्वर्गको प्राप्त हुआ था। गोविन्द नामक गोपाल का जीव ( कौंडेश
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