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सामारधर्मामृत विषयेषु सुखभ्रान्ति कर्मामिमुखपाकजाम् । छित्त्वा तदुपभोगेन त्याजयेत्तान्स्ववत्परान् ॥६२
दैवाल्लब्धं धनं प्राणः सहावश्यं विनाशि च । बहुधा विनियुञ्जानः सुधीः समयिकान्क्षिपेत् ॥६३ विन्यस्यैदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत् कुतः श्रेयोऽतिर्चाचनाम् ॥६४ भावो हि पुण्याय मतः शुभः पापाय चाशुभः । तं दुष्यन्तमतो रक्षेद् धीरः समयभक्तितः ॥६५ ज्ञानमयं तपोऽङ्गत्वात् तपोऽयं तत्परत्वतः । द्वयमयं शिवाङ्गत्वात् तद्वन्तोऽा यथागुणम् ॥६६
न्यमध्योत्तमकुत्स्यभोगजगतीभुक्तावशेषाद् वृषात्, तादृक्पात्रवितीर्णभुक्तिरसुदृग् देवो यथास्वं भवेत् । सदृष्टिस्तु सुपात्रदानसूकृतोद्रेकात्सूभक्तोत्तम
स्वर्भूमर्त्यपदोऽश्नुते शिवपदं व्यर्थस्त्वपात्रे व्ययः॥६७ उत्तम गृहस्थ पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी विषयोंमें कर्मोदयसे उत्पन्न होनेवाले सुखके भ्रमको उन विषयोंके सेवनसे नाशकर अपने समान दूसरोंसे भी उन स्त्री आदिक विषयोंको छुड़वावे । भावार्थ-चारित्रमोहके उदयो स्त्री पुत्रादिकमें सुखका भ्रम हो रहा है, यह बात बिना उपभोगके समझमें नहीं आती। इसलिये साधर्मीको कन्यादान देना चाहिये और उसके उपभोग द्वारा वह भी अपने समान पुत्र कलत्रादिकसे विरक्त होवे । यह भी कन्यादानका एक हेतु है ॥६२।। प्राणोंके साथ नियमसे नष्ट होनेवाले और पुण्योदयसे प्राप्त हुए धनको लज्जा, भय और पक्षपात आदिक नाना प्रकारसे व्यय करनेवाला कल्याणका इच्छुक व्यक्ति सहधर्मी गृहस्थों या मुनियोंको तिरस्कृत करेगा क्या ? भावार्थ-प्राणोंके साथ धनसे भी सम्बन्ध अवश्य छूट जाता है, इसलिये नाना प्रकारसे उस धनका व्यय करनेवाला श्रावक धनके विनियोग ( व्यय ) के समय अपने सामियोंको सहायताका लक्ष्य नहीं रखेगा क्या ? जरूर रखेगा ॥६३॥ उत्तम गृहस्थ प्रतिमाओंमें स्थापित अरिहन्तोंकी तरह वर्तमानकाल सम्बन्धी मुनियोंमें चतुर्थकाल सम्बन्धी मुनियोंको नामादिक द्वारा स्थापित करके भक्तिसे पूजा करे, क्योंकि अत्यन्त खोद-विनोद करनेवालोंका कल्याण कहाँ हो सकता है ? भावार्थ-द्रव्य,क्षेत्र, काल और भावके निमित्तकी कमोसे आधुनिक मुनि पूर्व मुनियोंके समान नहीं मिलते । तो भी जैसे प्रतिमाओंमें जिनेन्द्रकी स्थापना करके पूजा की जाती है उसी प्रकार आधुनिक मुनियोंमें पूर्व मुनियोंकी स्थापना करके उनकी पूजन करना चाहिये, क्योंकि अधिक नुक्ताचीनी करनेवालोंको कल्याणकी प्राप्ति कहाँसे होगी ॥६४|| क्योंकि शुभ परिणाम पुण्यास्रवके लिये और अशुभ परिणाम पापास्रवके लिये माना गया है इसलिये धोरपुरुष विकारको प्राप्त होनेवाले उस भावको जिनागममें भक्तिसे वशमें रक्खे । भावार्थ-इस कलिकालमें जिनशासनकी भक्तिसे जिनरूपको धारण करनेवाले व्यक्ति भी जिनेन्द्रके समान मान्य हैं ऐसी धर्मानुरागिणी बुद्धिसे चित्तमें विकार न लाकर धीर बनना चाहिए। क्योंकि भाव ही पुण्य और पापका कारण है। इसलिए उसे दूषित होनेसे बचाना चाहिए ॥६५॥ अनशन आदिक तपका कारण होनेसे ज्ञान पूजनीय है, उस ज्ञानकी वृद्धिका कारण होनेसे तप पूजनीय है और मोक्षका कारण होनेसे ज्ञान तथा तप दोनों पूजनीय हैं। और ज्ञानयुक्त, तपसे युक्त और ज्ञान तथा तप दोनोंसे युक्त पुरुष अपने-अपने गुणोंके अनुसार पूजनीय हैं ।।६६।। जघन्य, मध्यम और उत्तम पात्रों तथा कुपात्रोंको आहार दान देनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव जघन्यभोगभूमि, मध्यमभोगभूमि, उत्तमभोगभूमि और कुभोगभूमिके विषयोंके भोगनेसे बचे हुए पुण्यसे यथायोग्य देव होता है और सम्यग्दृष्टि जीव सुपात्रको दान देनेसे उत्पन्न पुण्यके प्रभावसे भलीप्रकार उत्तमभोग भूमि, महाधिक कल्पवासी
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