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________________ श्रावकाचार-संग्रह दम्पत्योः स तयोस्त्रिवर्गघटनात् त्रैगिकेष्वप्रणी भूत्वा सत्समयास्तमोहमहिमा कार्ये परेऽप्यूर्जति ॥५८ सत्कन्यां ददता दत्तः सत्रिवर्गो गृहाश्रमः । गृहं हि गृहिणीमाहुन कुडचकटसंहतिम् ॥५९ धर्मसन्ततिमक्लिष्टां रति वृत्तकुलोन्नतिम् । देवादिसत्कृति चेच्छन् सत्कन्यां यत्नतो वहेत् ॥६० सुकलत्रं विना पात्रे भूमादिव्ययो वृथा । कोटेर्दन्दश्यमानेऽन्तः कोऽम्बुसेकाद्रुमे गुणः ॥६१ वा पतिका कल्याण सूचित करने वाली सामुद्रिक शास्त्र कथित दोषरहित कन्याको वरके योग्य कुल और विद्या आदिक गुणोंसे शोभायमान व्यक्तिको शास्त्रोक्तविधिसे विवाहकर श्रद्धासे सत्कार करता है, वह व्यक्ति उन दोनों पतिपत्नीके त्रिवर्गका मेल मिला देनेसे धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थके साधकोंमें प्रधान होकर स्वाध्याय या सत्सङ्गतिके प्रभावसे नष्ट हो गया है मिथ्यात्व जिसका ऐसा होता हुआ मोक्ष-सम्बन्धी कार्यमें भी समर्थ होता है। भावार्थ-जो व्यक्ति आत्मकर्तव्य समझता हुआ सामुद्रिक शास्त्र में प्रतिपादित दोषोंसे रहित, शुभ लक्षणोंसे अपना वा पतिका कल्याण सूचित करनेवाली कन्याको कुल, शील, विद्या, योग्य वय और सौरूप्य आदिक गुणोंसे युक्त वरको धर्मविधिसे विवाहकर अपने सधर्मीका सत्कार करता है वह जिनागमका स्वाध्याय या सत्संगतिके द्वारा अपने चारित्रमोहको मन्द कर वर-वधूके पुरुषार्थत्रयका सम्पादक होनेसे गृहस्थोंमें श्रेष्ठ होकर इस लोक तथा परलोकके आवश्यक कार्योंको पूर्ण करने में समर्थ होता है ।।५८॥ उत्तम कन्याको देनेवाले गृहस्थके द्वारा सहधर्मी गृहस्थके लिये त्रिवर्गसहित गृहस्थाश्रम अथवा गृह दिया जाता है, क्योंकि विद्वान् स्त्रीको ही घर कहते हैं, दीवालों और बांसोंके समूहको नहीं। विशेषार्थ-जो व्यक्ति सधर्मीको कन्यादान देता है वह उसे गृहस्थाश्रम ही देता है। क्योंकि कुलपत्नीका नाम ही घर है, दीवालों और छप्पर आदिका नहीं। तपके स्थानको आश्रम कहते हैं। घररूपी तपस्थानको गृहस्थाश्रम कहते हैं । धर्म, अर्थ और कामका मूल स्त्री है । योग्य स्त्रीके होनेपर ही संयम, देवपूजा और दान सधते हैं। इस कारण स्त्री धर्मपुरुषार्थमें कारण है। २-योग्य स्त्रीके होनेपर ही वेश्यादि व्यसनसे व्यावृत्ति होती है, जिससे धनकी रक्षा होती है । अथवा स्त्रीके सद्भाव में आकुलताका अभाव होनेसे निश्चिन्त होकर धनका अर्जन, रक्षण और वर्धन होता है इसलिये अर्थपुरुषार्थको सिद्धि होती है। ३-और योग्य स्त्रीके होनेपर ही प्रीति और सम्भोगसे सम्पन्न रुचिर अभिलापारूप कामकी प्राप्ति होती है। इसप्रकार कन्यादानसे तीनों पुरुषार्थोके दानका फल मिलता है ||५९|| धर्मके लिये सन्तानको अथवा धर्म परम्परा चलते रहनेको, विघ्न रहित स्त्री सम्भोगको, चारित्र तथा कुलकी उन्नतिको और देव तथा अतिथि वगैरहके सत्कारको चाहनेवाला पाक्षिक श्रावक प्रयत्नसे उत्तम कन्याको ब्याहे। भावार्थधर्म, सन्तान, निविघ्न भोग-विलास, आचार और कुलकी उन्नति तथा देव, ब्राह्मण, अतिथि और बान्धवोंका सत्कार बिना स्त्रीके नहीं हो सकता, इसलिये इन बातोंके इच्छुक व्यक्तिको समीचीन कन्या अथवा सज्जनोंको कन्यासे प्रयत्नके साथ विवाह करना चाहिये ॥६०|| अच्छी स्त्रीके बिना मोक्षमार्ग साधक पात्रमें पृथ्वो तथा सुवर्ण वगैरहका दान देना व्यर्थ होता है जैसे घुणोंके द्वारा भोतर बुरी तरह काटे गये वृक्षमें जलसिंचनसे कौनसा लाभ है। भावार्थ-यदि कन्यादान न देकर सधीको केवल पृथ्वी और स्वर्णादिक दिया जावे तो वह जिस वृक्षमें घुन लगा है उसमें णनी सींचनेके समान व्यर्थ है । अथवा जेसे घुन-युक्त वृक्षमें पानी सींचना वृथा है, उसी प्रकार : गृहिणीहीन श्रावकके लिये भूमि और स्वर्ण आदिकका देना वृथा है ॥६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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