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________________ सागारधर्मातमृत वरमेकोऽप्युपकृतो जैनो नान्ये सहस्रशः। दलादिसिद्धान कोऽन्वेति रससिद्धे प्रसेदूषि ॥५३ नामतः स्थापनातोऽपि जैनः पात्रायतेतराम् । स लभ्यो द्रव्यतो धन्यैर्भावतस्तु महात्मभिः ॥५४ प्रतीतजैनत्वगुणेऽनुरज्यन् निर्व्याजमासंसृति तद्गुणानाम् । धुरि स्फुरन्नभ्युदयैरदृप्तस्तृप्तस्त्रिलोकीतिलकत्वमेति ॥५५ निस्तारकोत्तमायाथ मध्यमाय सधर्मणे । कन्याभूहेमहस्त्यश्वरथरत्नादि निर्वपेत् ॥५६ आघानादिक्रियामन्त्रव्रताद्यच्छेदवाञ्छया। प्रदेयानि सधर्मभ्यः कन्यादीनि यथोचितम् ॥५७ निर्दोषां सुनिमित्तसूचितशिवां कन्यां वराहेंः गुणेः । स्फूजन्तं परिणाय्य धर्म्यविधिना यः सत्करोत्यञ्जसा। हजारों नहीं क्योंकि दारिद्रय तथा व्याधि वगैरहको दूर करनेकी शक्तिसे युक्त पारेको सिद्ध करने वाले व्यक्तिके प्रसन्न होनेपर साररहित और कृत्रिम सुवर्णादिक द्रव्योंके बनाने में प्रसिद्ध व्यक्तियोंको कौन पुरुष चाहता है। भावार्थ-जब तक असली पारद भस्मकी प्राप्ति नहीं होती तब तक भले हो नकली पारदका आदर किया जाता है, परन्तु असली पारदके मिलनेपर नहीं। उसी प्रकार सच्चे श्रद्धानके धारकोंके अभावमें भले हो कुश्रद्धानी ज्ञानी तपस्वी पात्र समझे जाते हैं। परन्तु सम्यग्दष्टी पात्रोंके सामने तो वे अत्यन्त निष्प्रभ हैं। क्योंकि पात्रताका कारण असलो श्रद्धान है, ज्ञान और तप नहीं ॥५३॥ नामनिक्षेपसे और स्थापनानिक्षेपसे भी जन विशेष पात्रके समान मालूम होता है। वह जैन द्रव्यनिक्षेपसे पुण्यात्माओंके द्वारा तथा भावनिक्षेपसे महात्माओंके द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। विशेषार्थ-जो व्यक्ति नाम व स्थापनासे जैन हैं वे भी अजन पात्रोंकी अपेक्षा अधिक पात्रताके धारक हैं। जो द्रव्य जैन-पात्र हैं वे धन्य जो भाव जैनपात्र हैं वे महात्मा हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे जैनके चार भेद हैं। जो गुणोंके बिना नाममात्रसे जैन है उसे नाम जैन कहते हैं । 'यह वही जैन है' इस प्रकार कल्पनायुक्त जैनको स्थापना जैन कहते हैं। जिसे भविष्य में यथार्थ श्रद्धान आदिक जैनगुण प्राप्त होने वाले हैं उसे द्रव्य जैन कहते हैं। तथा जिसे वर्तमानमें यथार्थश्रद्धान आदिक जैन गुण प्राप्त हैं उसे भाव जैन कहते हैं ।।५४॥ प्रसिद्ध है जैनत्वगुण जिसका ऐसे व्यक्तिमें छलकपट रहित अनुराग करनेवाला और संसारपर्यन्त प्रसिद्ध जेनत्वगुणवाले पुरुषोंके अग्रभागमें शोभायमान होनेवाला उत्कर्षोंसे गर्वरहित तथा सन्तुष्ट होता हुआ गृहस्थ तीनों लोकोंके तिलकपने अर्थात् मोक्षपनेको प्राप्त होता है। भावार्थ-जो व्यक्ति जैनोंके प्रति निश्छल वृत्तिसे अनुराग करता है वह जब तक संसारमें रहता है तब तक निर्मद होकर सांसारिक ऐश्वर्योंसे तृप्त होता हुआ अन्तमें मुक्तिको प्राप्त करता है ।।५५।। पाक्षिक श्रावक अपने समान धर्मके पालक उत्तम गृहस्थाचार्यके लिये अथवा मध्यम श्रावकके लिये कन्या, भूमि, सुवर्ण, हाथी, घोड़ा, रथ, रत्न और मकान आदिक दानमें देवे । भावार्थ-समियोंमें प्रधान व्यक्ति के लिये कन्या तथा दहेजमें भूमि, सोना, हाथी, घोड़ा आदि देना चाहिये । किन्तु यदि उत्तम पात्र नहीं मिल सके तो सधी मध्यम पात्रके लिये ही उक्त वस्तुएँ अर्पण करना चाहिये ॥५६।। गृहस्थके द्वारा गर्भाधान आदिक क्रियाओं की तथा उनके मंत्रोंकी व्रतनियमादिकोंकी रक्षाकी आकांक्षासे सहर्मियोंके लिये यथायोग्य कन्या आदिक दिये जाना चाहिये। भावार्थ-गर्भाधानादिक क्रियाओंके मंत्र या अपराजित महामंत्र, अष्टमूलगुण तथा देवपूजन और पात्रदान आदि सत्कर्मकी निरन्तर प्रवृत्ति चलती रहे, इस हेतु सर्मियोंको कन्या आदिकका दान देना चाहिये ।।५७। जो गृहस्थ शुभलक्षणोंसे अपना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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