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________________ सागारधर्मामृत पाक्षिकाचारमंस्कारढीकृतविशुद्धडक । भवागभोगनिविण्णः परमेष्ठिपदैकधीः ॥७ निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोत्सुकः । न्याय्यां वृत्ति तनुस्थित्यै तन्वन् दर्शनिको मतः ॥८ मद्यादिविक्रयादीनि नार्यः कुर्यान्न कारयेत् । न चानुमन्येत मनोवाक्कायैस्तद्वतद्युते ॥९ भजन मद्यादिनाजः स्त्रीस्तादृशः सह संसृजन् । भुक्त्याऽऽदौ साकोतिं मद्यादिविरतिक्षतिम् ॥१० घटमान और निष्पन्न तीन प्रकार होता है वह दगमंयम पालन करनेवाला श्रावक योगीकी तरह तोन प्रकारका हाता है। विशेषार्थ-जिसप्रकार योग अर्थात् समाधि नेगम आदि नयसे प्रारब्ध, घटमान और निष्पन्नके भेदसे तीन प्रकार है उसी प्रकार जिनभक्त श्रावकका देशमंयम भी प्रारब्ध, घटमान और निष्पन्नके भेदसे तीन प्रकारका है। पाक्षिक श्रावक व्रतोंका अभ्यास करता है इसलिये वह प्रारब्ध देशसंयमी है। नैष्ठिक श्रावक प्रतिमाओंके व्रतोंको क्रमसे पालता है इसलिये वह घटमान देशसंयमी है और साधक श्रावक आत्मलीन होनेसे निष्पन्न देश संयमी है। प्रारब्ध नाम उपक्रान्त या प्रारम्भ करने का है। घटमान नाम निर्वाह करने का है और निष्पन्न नाम पूर्ण या पर्यन्तका है ॥६॥ पाक्षिक श्रावकके आचरणोंक संस्कारसे निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा, संसार, शरीर और भोगोंसे अथवा संसारके कारणभूत भोगोंसे विरक्त, पञ्च परमेष्ठियोंके चरणोंका भक्त, मूलगुणोंमेंसे अतिचारोंको दूर करनेवाला, आगेके व्रतिक आदिक पदोंके धारण करने में उत्सुक तथा शरीरको स्थिर रखनेके लिये न्यायानुकूल आजीविकाको करनेवाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी माना गया है। विशेषार्थ-पाक्षिक सम्बन्धी आचारके संस्कारसे निश्चल और निर्दोष सम्यक्त्ववाला, संसार, शरीर और भोगासे विरक्त अथवा संसारके कारणभूत भोगोंसे विरक्त, पञ्चपरमेष्ठीका उपासक, निरतिचार अष्ट मूलगुणोंका पालक, आगेकी प्रतिमाके धारणको उत्सुक और आजीविकाके लिये अपने वर्ण, कुल और व्रतके अनुकूल कृषि आदिक आजीविका करनेवाला दर्शनप्रतिमाधारी दर्शनिक श्रावक कहलाता है। 'परमेष्ठिपदेकधी' पदमें आये हुए 'एक' शब्दसे यह सूचित होता है कि दर्शनिक श्रावक आपत्तिके समयमें भी शासनदेवताको पूजा नहीं करता। 'भवाङ्गभोगनिर्विण्णः' पदका यह अभिप्राय है किदर्शनिकश्रावकके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी तथा अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी आठ कषायोंका उदय न होनेसे संसार, शरीर और भोगोंके भोगनेपर भी उनमें उसकी आसक्ति नहीं पाई जाती ॥७-८॥ दर्शनिक श्रावक मद्यत्याग आदि मूलगुणोंको निर्मल रखनेके लिये मन, वचन और कायसे मद्यादिककी खरीद तथा विक्री आदि स्वयं नहीं करे, दूसरोंसे नहीं करावे तथा अनुमति नहीं देवे । भावार्थ-आठ मूलगुणोंको निरतिचार पालन करनेके लिये दर्शनिक श्रावक मन, वचन ओर कायसे मद्य, मांस, मधु और मक्खन आदिका व्यापार न स्वयं करे, न दूसरोंसे करावे और अनुमोदना भी नहीं करे। आदिशब्दसे यह भी सूचित किया गया है कि अचार, मुरब्बा आदि बनानेका उपदेश भी नहीं करे ।।९।। मद्य मांस आदिको खानेवाली स्त्रियोंको सेवन करनेवाला और भोजन वगैरह में मद्यादिकके सेवन करनेवाले पुरुषोंके साथ संसर्ग करनेवाला व्रतधारी पुरुष निन्दासहित मद्यत्याग आदि मूलगुणोंकी हानिको प्राप्त होता है। भावार्थ-मद्यादिकका भक्षण करनेवाली स्त्रियोंके साथ संसर्ग तथा भोजन करनेसे, उनके पात्रोंमें जीमने और उनके साथ जीमने बैठनेसे तथा मद्यादि पीनेवाले पुरुषोंके साथ भी इसी प्रकारके संसर्गसे अपयश होता है और मद्यादित्यागवतकी हानि होती है इसलिए मद्यादिकके सेवनमें आसक्त स्त्री पुरुषोंका भोजनादिकमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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