SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ श्रावकाचार-संग्रह विस्तारोऽङ्गादिविस्तीर्णश्रुतस्यार्थसमर्थता । स्वप्रत्ययः समर्थः स्यावर्थस्त्वागमगोचरः ॥६१ अङ्ग-पूर्वप्रकीर्णात्मश्रुतस्यैकतमे स्थले । निःशेषार्थावबोधार्थं भवेत्तदवगाढकम् ॥६२ सर्वज्ञानावधिज्ञानमनःपर्ययसन्निधौ। यदात्मप्रत्ययोत्थं तत्परमाधवगाढकम ॥६३ तदुत्पत्तिनिसर्गणाधिगमेन च जायते । अल्पात्प्रयासतस्त्वाद्या द्वितीया बहुतस्ततः ॥६४ प्राप्य द्रव्यादिसामग्री महत्त्वाद्यवलोकने । बाह्योपदेशकार्याद्वा ज्ञानं यत्तन्निसर्गजम् ॥६५ प्रमाण-नय-निक्षेपैस्तत्त्वं निश्चित्य ह्यात्मनः । सन्देहादीनपाकृत्य रुचिः साधिगमोद्भवा ॥६६ दोषा गुणा गुणा दोषा वैपरीत्ये भवन्त्यमी। भावान्तरस्वभावोऽयमभावो यद्यवस्थितः ॥६७ प्रयस्त्रिशद-गुणैर्युक्तं दोस्तावद्धिज्झितम् । यः पालयति सम्यक्त्वं स याति त्रिजगच्छियम् ॥६८ एकमेव हि सम्यक्त्वं यस्य जातं गुणोज्ज्वलम् । षट्पाताल-त्रिधादेवस्त्रीषुत्पत्ति विलुम्पति ॥६९ तमवनिपतिसम्पत्सेवते नाकलक्ष्मीर्भवति गुणसमृद्धिस्तं वृणीते च सिद्धिः । स भवजलधिपारं प्राप्तवान् कर्मदूरं त्रिजगदमितदृष्टिनिर्मला यस्य दृष्टिः ॥७० आगमके फलकी प्राप्तिकी सूचना करनेवाले बीजपदसे उत्पन्न सम्यक्त्ववो बीजसम्यक्त्व कहते हैं। तत्त्वोंका और आप्त-आगमादिका संक्षेपसे वर्णन सुनकर उत्पन्न सम्यक्त्वको समाससम्यक्त्व कहते हैं ॥६०।। अंग-पूर्व आदि विस्तृत श्रुतके अभ्याससे उत्पन्न सम्यक्त्वको विस्तारसम्यक्त्व कहते हैं। द्वादशाङ्गवाणीके अर्थको अपने आप हृदयंगम करनेसे उत्पन्न सम्यक्त्वको अर्थसमुद्भवसम्यक्त्व कहते हैं ॥६१॥ अंग, पूर्व और प्रकीर्णकरूप श्रुतके किसी एक स्थलपर चिन्तवन करते हुए समस्त अर्थका ज्ञान होनेसे जो दृढ़ सम्यक्त्व होता है, वह अवगाढसम्यक्त्व है ॥६२॥ केवलज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके सान्निध्यमें जो आत्मप्रतीतिसे उत्पन्न दृढ़सम्यक्त्व होता है, वह परमावगाढसम्यक्त्व है ।।६।। यहाँपर इतना विशेष ज्ञातव्य है कि आत्मानुशासन आदिमें श्रुतकेवलीके सम्यक्त्वको अवगाढसम्यक्त्व और केवलीभगवान्के सम्यक्त्वको परमावगाढसम्यक्त्व कहा गया है। उस सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति निसर्गसे और अधिगमसे होती है। इनमें अल्प प्रयत्नसे निसर्गसम्यक्त्व उत्पन्न होता है और बहुत प्रयत्नसे अधिगमसम्यक्त्व उत्पन्न होता है ॥६४॥ द्रव्यादि योग्य सामग्रीको पाकर, कल्याणकोंके माहात्म्य आदिके देखनेपर, अथवा बाह्य उपदेशरूप कार्यसे जो यथार्थज्ञान होता है, वह निसर्गजसम्यक्त्व है ॥६५॥ प्रमाण, नय और निक्षेपसे तत्त्वका निश्चय करके और अपने सन्देह आदिको दूर करके जो रुचि उत्पन्न होती है वह अधिगमज सम्यक्त्व है॥६६॥ रुचि या श्रद्धाके विपरीत होनेपर अर्थात् उसके अभावमें दोष तो गुण प्रतीत होने लगते हैं और गुण दोष मालूम पड़ने लगते हैं ? क्योंकि जैनमतमें अभावको भावान्तर-स्वभावी अवस्थित माना गया है । अर्थात् जब सम्यक्त्वका अभाव है, ऐसा कहा जाय; तब उसके प्रतिपक्षी मिथ्यात्वका सद्भाव वहीं पर जानना चाहिए ॥६७।। जो मनुष्य तेतीस गुणोंसे युक्त और इतने ही दोषोंसे रहित सम्यक्त्वको पालता है, वह तीन जगत्की लक्ष्मीको प्राप्त करता है ॥६८॥ भावार्थ-सम्यक्त्व के पच्चीस दोष पहले बतलाये गये हैं, उनमें प्रशम, संवेग आदि आठ गुणोंके अभावरूप आठ दोष मिलानेपर तेतीस दोष हो जाते हैं। तथा इन्हीं तेतीस दोषोंके अभाव होनेपर तेतीस गुण प्रकट हो जाते हैं क्योंकि ऊपर अभावको भावान्तर स्वभावी बतलाया गया है। जिस पुरुषके गुणोंसे उज्ज्वल एक ही सम्यक्त्वरत्न उत्पन्न हो जाता है, वह छह पातालों (नरकों) में भवनत्रिक देवोंमें और सर्व प्रकारकी स्त्रियोंमें अपनी उत्पत्तिका विलोप कर देता है। अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव इनमें जन्म नहीं लेता है ।।६९।। जिसकी दृष्टि (सम्यग्दर्शन) निर्मल है, उसको राज्यलक्ष्मी सेवा करती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy