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________________ गुणभूषण- श्रावकाचार यद् - रागादिदोषेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । शमः समुच्यते तज्ज्ञेः समस्तव्रतभूषणम् ॥४८ धर्मे धर्मफले रागः संवेगः स समुच्यते । निवेंगो देह- संसारभोगा निर्विण्णता मता ॥ ४९ मनसा वपुषा वाचा सति दोषे विनिन्दनम् । आत्मसाक्षि भवे निन्दा गर्हा गुर्वादिसाक्षिकी ॥५० अर्हच्छ्रततपोभृत्सु वन्दनास्तवनार्चने । स्यादान्तरोऽनुरागो यः सा भक्तिरिति कीर्त्यते ॥५१ तत्त्वाऽव्रतमार्गेषु चित्तमस्तित्वसंयुतम् । यत्तदास्तिक्यमित्युक्तं सम्यक्त्वस्य विभूषणम् ॥५२ सर्वजन्तुषु चित्तस्य कृपाऽऽर्द्वत्वं कृपालवः । सद्धर्मस्य परं बीजमनुकम्पां वदन्ति ताम् ॥५३ चारित्रं देहजं ज्ञानमक्षजं मोहजा रुचिः । मुक्तात्मनि यतो नास्ति तस्मादात्मैव तत्त्रयम् ॥५४ तीव्रक्रोधादिमिथ्यात्वमिश्र सम्यक्त्वकर्मणाम् । सप्तानां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमितोऽपि च ॥ ५ क्षायिक चोपशमिक क्षायोपशमिकं तथा । सम्यक्त्वं त्रिविधं प्रोक्तं तत्त्वनिश्चलतात्मकम् ॥५६ आज्ञा मार्गोपदेशात्तु सूत्रबीज समासजम् । विस्तारोऽर्थोद्भवं वा च परमावादिगाढके ॥५७ सर्वज्ञोपज्ञमार्गस्यानुज्ञा साज्ञा समुच्यते । रत्नत्रय विचारस्य मार्गो मार्गस्तु कीर्त्यते ॥ ५८ पुराणपुरुषाख्यानश्रुत्यादेशो निगद्यते । उपदेशो यत्याचारवर्णनं सूत्रमुच्यते ॥५९ सर्वागमफलावाप्ति- सूचनं बीजमुच्यते । सः समासो यः संक्षेपालापस्तत्त्वाप्तवर्णनम् ॥६० ४४१ चित्तवृत्तिके शान्त होनेको ज्ञानियोंने समस्त व्रतोंका भूषणस्वरूप प्रशम गुण कहा है || ४८|| धर्म और धर्मके फलमें जो अनुराग है, वह संवेग कहलाता है । संसार, शरीर और इन्द्रियोंके भोगों से विरक्तिको निर्वेग माना गया है ||४९ || किसी व्रतमें दोष लग जानेपर मनसे वचनसे और कायसे जो अपनी निन्दा की जाती है, वह यदि आत्मसाक्षीपूर्वक हो तो निन्दा गुण है, और यदि गुरु आदिकी साक्षी पूर्वक हो, तो गर्हा गुण है ॥५०॥ अरहन्त, श्रुत और गुरुओंमें वन्दना, स्तवन और अर्चन करते हुए जो आन्तरिक अनुराग प्रकट किया जाता है, वह भक्ति कही जाती है ॥५१॥ तत्त्व, आप्त, व्रत और जैनमार्गमें जो अस्तित्वबुद्धिसे युक्त चित्तका होना, सो आस्तिक्य कहा जाता है । यह गुण सम्यक्त्वका आभूषण है || ५२|| सर्व प्राणियोंपर चित्तका दयासे भींग जाना अनुकम्पा है। दयालु पुरुष इस अनुकम्पा गुणको सद्- धर्मका बीज कहते हैं ॥ ५३ ॥ यतः मुक्त आत्मामें शरीर से सम्बन्ध रखनेवाला चारित्र, इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान और मोहसे प्रकट होनेवाली रुचि नहीं पाई जाती है, अतः आत्मा ही सम्यक्त्व - ज्ञान - चारित्र इन तीनोंमय है || १४ || तीव्र क्रोधादिरूप अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति इन सात कर्मोंके क्षयसे होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायिकसम्यक्त्व कहते हैं । उन ही सातों कर्मों के उपशमसे होनेवाले सम्यग्दर्शनको औपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं, और उन ही सातों कर्मोके क्षयोपशमसे होनेवाले सम्यग्दर्शनको क्षायोपशमिकसम्यक्त्व कहते हैं । इस प्रकार तत्त्वनिश्चयात्मक सम्यक्त्व तीन प्रकारका कहा गया है ।।५५-५६|| सम्यग्दर्शनके जो दश भेद कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं- आज्ञा सम्यक्त्व, मार्गसम्यक्त्व, उपदेशसम्यक्त्व, सूत्रसम्यक्त्व, बोजसम्यक्त्व, समास या संक्षेपसम्यक्त्व, विस्तारसम्यक्त्व, अर्थसमुद्भवसम्यक्त्व, अवगाढसम्यक्त्व और परमावगाढसम्यक्त्व ||५७|| सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट मार्गकी अनुज्ञाको प्रमाण मानकर श्रद्धान करना आज्ञासम्यक्त्व है । रत्नत्रयकी प्राप्ति के मार्गका विचार करना मार्गसम्यक्त्व कहा जाता है ||५८ || त्रेसठशलाकापुराण पुरुषोंके कथानक - सुनकर उत्पन्न होनेवाले सम्यक्त्वको उपदेशसम्यक्त्व कहते हैं । मुनिजनोंके आचारका वर्णन सुनकर होनेवाले सम्यक्त्वको सूत्रसम्यक्त्व कहते हैं ॥ ५९ ॥ सर्व ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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