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________________ गुणभूषण-श्रावकाचार दृष्टिनिष्ठः कनिष्ठोऽपि वरिष्ठो गुणभूषणः । दृष्टयनिष्ठो वरिष्ठोऽपि कनिष्ठोऽगुणभूषणः ॥७१ इति श्रीमद्-गुणभूषणाचार्यविरचिते भव्यजनचित्तवल्लभाभिधानश्रावकाचारे साधुनेमिदेवनामाङ्किते सम्यक्त्ववर्णनं नाम प्रथमोद्देशः ॥१॥ स्वर्गलक्ष्मी प्राप्त होती है, गुणोंकी समृद्धिवाली सिद्धि उसे वरण करतो है और वह तीन जगत्को देखनेवाली अनन्तदृष्टिवाला होकर, कर्मोको दूरकर संसार-समुद्रके पारको प्राप्त होता है ।।७०॥ सम्यक् दृष्टिसे युक्त कनिष्ठ (लघु या नोच) भी पुरुष वरिष्ठ (श्रेष्ठ) गुणभूषण है और सम्यक् दृष्टि से रहित वरिष्ठ भी पुरुष कनिष्ठ और अगुणभूषण है ।।७१॥ । भावार्थ--इस श्लोकमें ग्रन्थकारने श्लेषरूपसे 'गणभूषण' यह अपना नाम प्रकट किया है । इस प्रकार श्रीगुणभूषणाचार्य-रचित, भव्यजन-चित्तवल्लभ नामवाले और साहु नेमिदेवके नामसे अंकित इस श्रावकाचारमें सम्यक्त्वका वर्णन करनेवाला पहला उद्देश समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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