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________________ श्रावकाचार-संग्रह ग्रन्थं गृहस्थचरणान्वितमेव सारं संशोधयन्तु मुनयो बहुशास्त्रवन्तः । रागादिदोषरहिता हि निरूपयन्तस्तत्तुल्यशास्त्र सहितेन दिगम्बरेण ॥१३१ अर्थो जिनेश्वर मुखादिह जातमेतत् सङ्ग्रन्थितं गणधरविविधाक्षरैश्च । लोके 'बभूव प्रकटं सुमुनीन्द्रवर्गात् सर्वादिकीर्तिविशदाच्च व्युपास काख्यम् ॥१३२ पूज्या ये भुवनत्रये जिनवरा इन्द्रादिभिः प्रत्यहं संसाराम्बुधितारकाः गणधरैर्वन्द्या मुनीन्द्रादिभिः । अन्तातीत सुखादिनिर्मल गुणैर्युक्ता व्यतीतोपमास्तेषां तीर्थंकृतां नमामि चरणौ सद्बुद्धिसंसिद्धये १३३ अमर गुणसुसेव्यं धर्मसद्रत्नभाण्डं निरुपमगुणयुक्तं पूर्वपूर्वे विदेहे । विजितकरणमारं तं हि सीमन्धराख्यं सकलगुणसमाप्त्यै संस्तुवे तीर्थनाथम् ॥ १३४ ४३४ ये तीर्थेश्वरभूतिसारकलिता देवेन्द्रसंसेवितातीतानागतवर्तमान सकले काले जिनेन्द्रा भुवि । अन्तातीतगुणाकरा गुणप्रदास्त्यक्तोपमा मुक्तये ह्यन्तातीत जिनेशिनां सुचरणौ तेषां प्रवन्दे शुभौ ॥१३५ ये सिद्धा नमिता मुनीश्वरगणैर्लोकाग्रगेहे स्थिताः सम्यक्त्वादिगुणाष्टका निरुपमा देहादिभारोज्झिताः । सारानन्त सुखाकरा हि विमला अन्तातिगा धर्मंदा - स्तेषां तद्गुणप्राप्तये प्रतिदिनं ध्यानं करोम्येव वं ॥ १३६ है, गृहस्थोंके समस्त श्रावकाचारको कहनेवाला है और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानरूपी निर्मल जलसे भरा हुआ है । हे पुण्यवानो, ऐसे इस ग्रन्थरूपी अमृतका तुम लोग पान करो, अर्थात् इसका पठन-पाठन मनन श्रवण आदि करो || १३० || जो राग द्वेष रहित और अनेक शास्त्रोंके जानकार मुनि इसी के समान किसी दिगम्बर आचार्यके बताये हुए शास्त्रोंसे श्रावकाचारको कहनेवाले इस ग्रन्थका शोधन करते हैं वे भी अनन्त पुण्यके भागी होते हैं || १३१|| यह उपासकाचार ग्रन्थ अर्थरूपसे तो भगवान् अरहन्त देवके मुखसे प्रगट हुआ है, गणधर देवोंके द्वारा अनेक प्रकारके अक्षरोंसे गूंथा गया है और इस संसार में मुनिराज सकलकीर्तिके द्वारा विस्तारताको प्राप्त हुआ है ॥ १३२॥ जो तीर्थंकर परमदेव तीनों लोकोंमें इन्द्रादिकोंके द्वारा प्रतिदिन पूज्य हैं, जो संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाले हैं, जो गणधर और मुनिराजोंके द्वारा वन्दनीय हैं, जो अनन्त सुख आदि निर्मल गुणोंसे सुशोभित हैं और संसार में जिनकी कोई उपमा नहीं है ऐसे श्री तीर्थंकर परमदेवके चरणकमलोंको में निर्मल बुद्धि प्राप्त करनेके लिए नमस्कार करता हूँ || १३३ || जो समस्त इन्द्रादि देवोंके द्वारा पूज्य हैं, अनुपम गुणोंसे सुशोभित हैं और इन्द्रिय तथा कामदेवको जीतनेवाले हैं ऐसे पूर्वं विदेहमें विराजमान श्री सीमन्धर तीर्थंकर परमदेवकी मैं उनके समस्त गुण प्राप्त करनेके लिए स्तुति करता हूँ || १३४|| जो तीर्थंकर परमदेवकी सारभूत विभूतिको प्राप्त हुए हैं, इन्द्रादिक देव भी जिनकी सेवा करते हैं, जो अनन्त गुणोंकी खानि हैं, अनन्त गुण देनेवाले हैं, और जिनकी उपमा संसारभर में कोई नहीं है ऐसे भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालोंमें होनेवाले अनन्तानन्त तीर्थंकरोंके पुण्य बढ़ानेवाले चरणकमलोंको में केवल मोक्ष प्राप्त करनेके लिए नमस्कार करता हूँ || १३५॥ जो सिद्ध भगवान् लोकशिखरपर विराजमान होते हैं, सम्यक्त्व आदि आठों गुणोंसे सुशोभित हैं, संसारमें जिनकी कोई उपमा नहीं, जिन्हें अनेक मुनिराजोंके समूह भी नमस्कार करते हैं, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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