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________________ ४३३ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार पत्सुखं त्रिभुवनाखिले वरं तद्गृहाधितसुपुण्यपाकतः । प्राप्य याति सुपदं नरोत्तमस्त्यक्तदुःखसुखसागरं क्रमात ॥१२२ श्रीजिनेन कथितो वरधर्मः सद्गृहेशमुनिगोचरो द्विधा । दुष्करे मुनिवृषे किलाक्षामास्ते धरन्तु गृहिणां व्रतमेतत् ॥१२३ संसाराम्बुधितारकं सुखकरं स्वर्गगृहोद्घाटनं श्वभ्रद्वारकपाटदं गुणकरं सारं क्रमान्मुक्तिदम् । उत्कृष्टव्रतपालनादिविषयं सागारधर्म बुधाः सेवध्वं परित्यक्तदोषमखिलं स्वर्मोक्षासौख्याप्तये ॥१२४ ये पालयन्ति निपुणा हि गृहस्थधर्म ते प्राप्य सौख्यमखिलं नृसुरादिजातम् । लब्ध्वापि तीर्थकरभूतिमपीह पूज्यं चामुत्र केवलिपदं च प्रयान्ति मुक्तिम् ॥१२५ प्रोपासकाचारमिदं पवित्रं पठन्ति ये शास्त्रमपीह भक्त्या। ते प्राप्य सौख्यं नृसुरादिजातं प्रचारतस्ते नु प्रयान्ति मुक्तिम् ॥१२६ ये तत्पठन्ति सुधियः परिणामशुद्धया ते कीतिमेव विमलां समवाप्य लोके। ज्ञात्वार्थतोऽतिगुणदं च शुभाशुभं वै त्यक्तेन सो घनतरं प्रभजन्ति पुण्यम् ॥१२७ ये पाठयन्ति गुणिनो गृहिणां स्वपुत्रान् व्याख्यां वदन्ति निजश्रावकजैनमध्ये। ग्रन्थस्य तेऽतिश्रुतदानत एव लब्ध्वा सत्केवलं सुविमलं च भजन्ति मोक्षम् ॥१२८ शृण्वन्ति येऽतिशुभदं परमं हि ग्रन्थमेकाग्रचित्तसहिता परमातिभक्त्या। ते ज्ञानिनोऽतिविमलाचरणात्प्रयान्ति मुक्ति समाप्य भुवनत्रयजं सुखं च ॥१२९ संवेगधर्मजननं विमलं गुणाढ्यं प्राचारकृत्स्नकथकं गृहमेधिनां च । सद्दर्शनावगमनिर्मलनीरपूर्ण ग्रन्थामृतं सुकृतिनो हि पिबध्वमेव ॥१३० गृहस्थोंका । मुनियोंका धर्म अत्यन्त कठिन है। जो इसे पालन नहीं कर सकते उन्हें गृहस्थोंके व्रत अवश्य पालन करने चाहिए ॥१२३।। यह गृहस्थ धर्म संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाला है, सुख देनेवाला है, स्वर्गरूपी घरको उघाड़नेवाला है, नरकके द्वारके किवाड़ोंको बन्द कर देनेवाला है, अनेक गुण प्रगट करनेवाला है, सबमें सारभूत है, अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करानेवाला है, इसमें उत्तम मध्यम जघन्य सब प्रकारके व्रत पालन किये जाते हैं, और यह समस्त दोषोंसे रहित है । है विद्वानो! तुम लोग स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिए ऐसे इस गृहस्थ धर्मका सेवन करो ॥१२४॥ जो चतुर पुरुष इस गृहस्थ धर्मका पालन करते हैं वे मनुष्य और देवोंके समस्त सुख पाकर तथा सबके द्वारा पूज्य ऐसे तीर्थंकर परमपदको पाकर और केवलज्ञानको परम विभूतिको पाकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१२५।। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इस श्रावकाचार ग्रन्थका पठन-पाठन करते हैं वे उन आचरणोंका पालन कर देव मनुष्योंके सब सुख पाते हैं और अन्तमें मोक्षपदको प्राप्त होते हैं ॥१२६॥ जो बुद्धिमान् अपने परिणामोंको शुद्धकर इस श्रावकाचारका पठन-पाठन करते हैं वे इस संसार में अपनी निर्मल कीर्ति फैलाते हैं तथा अनेक गुण देनेवाले शुभ अशुभ पदार्थोंको जानकर और समस्त पापोंका त्याग कर अतिशय पुण्यको प्राप्त होते हैं ।।१२७। जो पुरुष इस ग्रन्थको गुणी श्रावकोंके लिए अथवा अपने पुत्रोंके लिए पढ़ाते हैं अथवा जेनी श्रावकोंके मध्य में बैठकर इसका व्याख्यान करते हैं, सुनाते हैं वे ज्ञान दानके प्रभावसे निर्मल केवलज्ञानको पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१२८।। जो गहस्थ एकाग्रचित्त कर बड़ी भक्तिसे पूण्य बढ़ानेवाले इस ग्रन्थको सुनते हैं वे उस ज्ञानसे और निर्मल चारित्रको धारण करनेसे तीनों लोकोंके सुख पाकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१२९॥ हे पुण्यवान मनुष्यो! यह ग्रन्थरूपी अमृत संवेग और धर्मको उत्पन्न करनेवाला For Private & Personal Use Only ___ Jain Education५५ www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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