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________________ ४३२ श्रावकाचार-संग्रह एकादशसम्प्रतिमा त्रिशुद्धया पालयेत्सुघोः । यो जिनेन्द्रः स सम्प्रोक्तः उत्तमः श्रावको भुवि ॥११५ ते धन्या त्रिजगत्पूज्याः गता ये प्राचंतां जनात् । लोकेऽस्मिन् सद्वताचाराचरणे नैव सर्वथा ॥११६ अखिलगुणनिधानं सर्वदेवैः प्रपूज्यं अवगमत्रययुक्तं सारमष्टद्धिगेहम् । निरुपमगुणखानि प्रोत्तमः श्रावकोऽत्र व्रतजनितवृषाद्वै संवत्स्वर्गराज्यम् ॥११७ अखिलगुणसमुद्रं कृत्स्नभोगेकधाम विविधगुणसुपूर्ण ज्ञानऋद्धयादिकाढयम्। विगतसकलदुःखं पुण्यमूलं गृहस्थो निरुपमवतयोगादच्युतं याति नाकम् ॥११८ षट्खण्डभूसम्भवसौख्यगेहं रामादिसप्तद्वयरत्नयुक्तम्। निध्याकरं सद्वतजातपुण्यात्सलभ्यते चक्रिपदं गृहस्थैः ॥११९ यद्देवेन्द्र-नरेन्द्रवन्दितमहो लोकत्रये पूजितं प्रायं यन्मुनिनायकैः कृतमहाकष्टैस्तपोदुष्करात्। अन्तातोतगुणाकरं सुविमलं सौख्यालयं मुक्तिदं तन्नृणां प्रभवेत्सुगहिवततःसर्वज्ञसंवैभवम् ॥१२० मुनिवरगणप्रायों दुष्करैः सत्तपोभिरजर इह क्रमात् सं जन्मजातङ्कदूरम् । निरुपमगुणयुक्तो मोक्ष एवाप्यते वै अखिलसुखसमुद्रः सबुधैर्गेहिधर्मात् ॥१२१ कायकी शुद्धता पूर्वक इन ग्यारह प्रतिमाओंका पालन करते हैं वे इस संसारमें श्री तीर्थंकर परमदेव के द्वारा उत्तम श्रावक कहे जाते हैं ।।११५।। जो जीव इस संसारमें व्रत और चारित्रके आचरण करनेसे ही लोगोंके द्वारा सर्वथा पूज्य हुए हैं वे ही संसारमें धन्य हैं और वे ही संसार में पूज्य हैं ॥११६।। जो उत्तम श्रावक (क्षुल्लक) स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिये व्रत पालन करता है उस धर्म के प्रभावसे वह स्वर्गकी ऐसी सम्पदा प्राप्त करता है जो समस्त गुणोंकी निधि है, सब देवोंके द्वारा पूज्य है, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानोंसे सुशोभित है, सबमें सारभूत है, आठों ऋद्धियोंका घर है और निरुपम गुणोंकी खानि है ॥११७|| उत्तम श्रावक अपने निरुपम (उपमारहित) व्रतोंके पालन करनेसे सोलहवें अच्युत स्वर्गको प्राप्त करता है । वह अच्युत स्वर्ग सब गुणोंका सागर है, समस्त भोगोंका एक मात्र स्थान है, अनेक गुणोंसे भरपूर है, ज्ञान और ऋद्धियोंसे सुशोभित है, सब प्रकारके दुःखोंसे रहित है और पुण्यकी जड़ है ॥११८|| उत्तम श्रावकों को उनके द्वारा पालन किये गये उत्तम व्रतोंसे उत्पन्न हुए पुण्यसे चक्रवर्तियोंका उत्तम पद प्राप्त होता है । वह चक्रवर्तियोंका पद छहों खण्ड पृथिवीसे उत्पन्न हुए सुखोंका घर है और नौनिधि तथा चौदह रत्नोंसे सुशोभित है ॥११९।। उत्तम श्रावकोंको व्रतोंके प्रभावसे श्रो तीर्थकरकी विभूति प्राप्त होती है। यह तीर्थंकरकी विभूति इन्द्र चक्रवर्तियों के द्वारा पूज्य है, तीनों लोकोंमें पूज्य है, घोर तपश्चरण करनेवाले महा मुनिराज भी घोर तपश्चरणके द्वारा इसकी प्रार्थना करते हैं, यह अनन्त गणोंकी खानि है, अत्यन्त निर्मल है, परम सुखका घर है, और मुक्तिको देनेवाली है। ऐसी यह तीर्थकरकी विभूति उत्तम श्रावकोंको प्राप्त होती है ॥१२०|| बुद्धिमानोंको इस उत्तम गृहस्थधर्मके प्रभावसे अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त होती है । इस मोक्ष को मुनिराज भी श्रेष्ठ तपश्चरणके द्वारा प्रार्थना करते हैं, यह जन्म जरा मरणसे रहित है, अनुपम गुणोंसे सुशोभित है और समस्त सुखोंका सागर है ॥१२१।। उत्तम मनुष्य गृहस्थधर्मसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे तीनों लोकोंमें जो सुख सबसे उत्तम है उनको पाकर अनुक्रमसे समस्त दुःखोंसे रहित और सुखका समुद्र ऐसे मोक्षरूप परम स्थानको प्राप्त होते हैं ॥१२ ।। श्री जिनेन्द्रदेवने यह उत्तम धर्म दो प्रकारका बतलाया है-एक मुनियोंका और दूसरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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