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________________ ४३१ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार विधायावश्यक पूर्व सम्पूर्ण वतसंयुतः । ततः सर्व विधातव्यं सद्धयानाध्ययनादिकम् ॥१०३ यत्किञ्चिच्च समादेयं पुस्तकं नीरभाजनम् । वस्त्रादिकमथान्यद्वा धर्मोपकरणं वरम् ॥१०४ पूर्व निरीक्ष्य तत्सर्व ग्राह्यं त्याज्यं दयान्वितैः । सूक्ष्मोपकरणेनैव प्रतिलेख्यय पुनः पुनः ॥१०५ एवं दौः प्रकर्तव्यं वस्तूनां प्रतिलेखनम् । निक्षेपे वा सदाऽऽदाने जन्तुपीडाप्रहानये ॥१०६ दिने निद्रा न कर्तव्या प्रमादाशुभदायका । कृत्स्नदोषकरा तीताचारैरपि न संयतैः ॥१०७ प्रमाणं यत्नतो दौः कार्यो भूमौ स्वसंस्तरः । वपुस्तुल्यो विरागश्च स्त्रीजन्त्वादिविजितः ॥१०८ कायोत्सर्गो विधातव्यो रजन्यां वा दिने बुधैः । कालत्रयेऽथवा नित्यं कर्मेन्धनहताशनः ॥१०९ रात्रावावश्यकं कृत्वा सार्द्धयामे गते सति । निद्रां मौहतिको कुर्यात्सवती श्रमशान्तये ॥११० बहुनिद्रा न कर्तव्य ब्रह्मचर्यादिनाशिका । परलोकाथिभिस्त्यक्तसुखैः सद्वतसिद्धये ॥१११ धनुःशय्या विधातव्या दण्डाख्या मृतका तथा । तोवनिद्राविनाशार्थ व्रतिभिः सौख्यहानये ॥११२ रजन्याः पश्चिमे यामे शयनादुत्थाय संयतः । धर्मध्यानं विधातव्यं षडावश्यकगोचरम् ॥११३ किमत्र बहुनोक्तेन त्यक्तगेहैश्च क्षुल्लकैः । धर्मध्यानेन नेतव्यः कालः सर्वोऽपि शास्त्रतः ॥११४ होता और विना दानके गृहस्थ शोभायमान नहीं होता उसी प्रकार विना आवश्यकोंके संयमी भी शोभायमान नहीं होता ॥१०२।। पूर्ण व्रतोंको पालन करनेवाले त्यागियों को सबसे पहिले आवश्यकोंका पालन करना चाहिये और फिर ध्यान अध्ययन आदि अन्य समस्त कार्य करने चाहिये ॥१०३॥ पुस्तक, जल, पात्र, वस्त्र अथवा और भी धर्मोपकरण जो कुछ दयालु व्रतियोंको लेना वा रखना हो वह सब मुलायम उपकरणसे बार-बार देख शोधकर तथा उस पदार्थ वा स्थानको अच्छीतरह देखकर उठाना वा रखना चाहिए ॥१०४-१०५।। इस प्रकार चतुर त्यागियोंको जीवोंके दुःख दूर करनेके लिए किसी पदार्थको उठाने वा रखने में प्रत्येक पदार्थको देख व शोध लेना चाहिए ।।१०६।। दिन में कभी नींद नहीं लेनी चाहिए क्योंकि दिनमें नींद लेना प्रमाद बढ़ानेवाला, पाप उत्पन्न करनेवाला, और समस्त दोषोंको प्रगट करनेवाला है इसलिए पूर्ण व्रतोंको न पालनेवाले क्षुल्लकोंको भी दिनमें नहीं सोना चाहिए ॥१०७।। चतुर त्यागियोंको यत्नपूर्वक भूमिपर संस्तर करना चाहिये वह संस्तर शरीरके समान हो बड़ा न हो, वीतरागरूप हो और स्त्री जन्तु आदिसे सर्वथा रहित हो ॥१०८॥ बुद्धिमानोंको दिनमें अथवा रातमें तीनों समय अथवा सदा कर्मरूपी ईंधनको जलानेके लिये अग्निके समान ऐसा कायोत्सर्ग अवश्य करना चाहिये ॥१०९।। उत्तम व्रतियोंको पहिले तो अपने आवश्यक करने चाहिये और फिर रातमें डेढ पहर ( साढ़े चार घण्टे) रात बीत जानेपर केवल परिश्रमको शान्त करनेके लिये दो घडी नींद लेनी चाहिये ।।११०।। परलोकको सिद्ध करनेवाले और इन्द्रिय सम्बन्धी सुखों का त्याग कर देनेवाले उत्तम व्रतियोंको अपने व्रत पालन करनेके लिये ब्रह्मचर्य आदि व्रतोंको नाश करनेवाली अधिक नींद कभी नहीं लेनी चाहिये ॥१११॥ व्रतियोंको तीव्र निद्रा दूर करनेके लिये और सुखका त्याग कर देनेके लिये धनुषके आकारकी शय्या बनानी चाहिये वा दण्डाकार सोना चाहिये अथवा मतकासनसे सोना चाहिये ॥११२।। संयमियोंको रात्रिके पिछले पहर शय्यासे उठ कर छहों आवश्यकोंके अन्तर्गत रहनेवाला धर्मध्यान अवश्य करना चाहिये ॥११३।। बहुत कहनेसे क्या, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि घर गृहस्थीका त्याग करनेवाले क्षुल्लकोंको अपना सदाका समस्त समय धर्मध्यान पूर्वक ही व्यतीत करना चाहिये ॥११४। जो बुद्धिमान मन वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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