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________________ ४३० श्रावकाचार-संग्रह परानं हि समादाय न कार्या विकथा क्वचित् । महापापाकरा निन्द्या स्वप्नान्तेऽपि विरागिभिः ॥९० भक्षायित्वा पराहारं विकथां ये वदन्ति ते । अमुत्र पापभारेण बलीवर्दा भवन्ति वै ॥९१ चौरराजाननारीणां कथा कार्या न धोधनैः । वृथा पापप्रदा घोरा देशभाषादिका परा ॥९२ विकथाचारिणां याति जन्म एव निरर्थकम् । वृथा दीक्षा भवेन्नूनं प्रमादाधिष्ठितात्मनाम् ॥९३ मौनमेव प्रकर्तव्यं वाशु धर्मोपदेशनम् । सिद्धान्तस्य पठनं वा ध्यानं वा परमेष्ठिनाम् ॥९४ चिन्तनीयाः सदा सारा अनुप्रेक्षा व्रतान्वितैः। वैराग्यादि प्रसिद्धयर्थं मानसे कर्मनाशिकाः ॥९५ क्षामादिदशसद्धेदं ब्रह्मचर्यान्तमञ्जसा । चित्ते सम्भावयेन्नित्यं धर्म धर्मो स्वमुक्तये ॥९६ भावनीया सदा दक्षः षोडशात्मकभावनाः । दृष्टयादिकविशुद्धाढ्यास्तीर्थनाथविभूतिदाः ॥९७ आज्ञोपायविपाकाख्यं संस्थानविचयात्मकम् । धर्मध्यानं सदा पेयं व्रतिभिः स्वर्गमुक्तिदम् ॥९८ सङ्कल्पजितं कृत्वा मनः कार्यात्मभावना । अनन्तकर्मसन्तानघातका स्वस्य सद्बुधैः ॥९९ आवश्यकं प्रकर्तव्यं षड्विधं यत्नतोऽनिशम् । शमनादिप्रदं दक्षैः स्वकर्मक्षयहेतवे ॥१०० प्राणान्तेऽपि न मोक्तव्यं सर्वसौख्याकरं परम् । आवश्यकं सदा धोरर्वतादिमलनाशकम् ॥१०१ वन्तहीनो यथा हस्ती दंष्ट्राहीनो मृगाधिपः । दानहीनो गृहो नाभात्त्यक्तावश्यकसंयमी ॥१०२ धर्मध्यान करते रहना चाहिए। विना धर्मध्यानके प्रमादमें एक घड़ी भी कभी नहीं खोनी चाहिए ॥८९॥ दूसरोंका दिया हुआ अन्न ग्रहण करके विरागी पुरुषोंको महापाप उत्पन्न करनेवाली और निंद्य विकथाएँ स्वप्नमें भी कभी नहीं करनी चाहिए ॥९०॥ जो त्यागी दूसरेके घर आहार ग्रहण कर विकथा कहते हैं वे उस पापके भारसे मरकर परलोकमें बैल होते हैं ॥९१॥ बुद्धिमानोंको चोरकथा, राजकथा, भोजनकथा और स्त्रीकथा कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि ये विकथाएँ व्यर्थ हो पाप उत्पन्न करनेवाली हैं इसी प्रकार देश भाषा आदिकी अन्य ऐसी ही कथाएँ भी विकथाएं हैं वे भी त्यागियोंको नहीं करनी चाहिए ।।१२।। प्रमादमें डूबे हुए तथा विकथा करने सुननेवाले त्यागियोंका जन्म ही निरर्थक जाता है और उनकी ली हुई दीक्षा निःसन्देह व्यर्थ गिनी जाती है ।।१३।। त्यागियोंको या तो मौन धारण करना चाहिए वा श्रेष्ठ धर्मका उपदेश देना चाहिए या सिद्धान्त शास्त्रोंका पठन-पाठन करना चाहिए अथवा परमेष्ठियोंका ध्यान करना चाहिए ॥९४॥ अथवा व्रती त्यागियोंको अपने वैराग्यको सुदृढ़ बनानेके लिये अपने मनमें सदा कर्मोंको नाश करनेवाली सारभूत बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना चाहिए ॥९५।। धर्मात्मा त्यागियोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिये अपने मनमें उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप त्याग आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दस धर्मोका सदा चितवन करते रहना चाहिये ॥९६।। चतुर त्यागियोंको तीर्थंकरकी विभूति देनेवाली दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओंका चितवन सदा करते रहना चाहिए ।।९७|| व्रती त्यागियोंको स्वर्गमोक्ष प्राप्त करनेके लिए आज्ञाविषय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय ये चारों प्रकारके धर्मध्यान सदा धारण करते रहना चाहिए ॥९८|| बुद्धिमान त्यागियोंको अपने मनके समस्त संकल्प विकल्प छोड़कर अनन्त कर्मोके समूहको नाश करनेवाली, अपने आत्माके चितवन करनेकी भावना सदा करते रहना चाहिए ॥९९॥ चतुर त्यागियों को अपने कर्म नाश करने के लिये समता वन्दना आदि छहों प्रकारके आवश्यक प्रयत्नपूर्वक रात: न पालन करते रहना चाहिए ।।१००॥ धीरवीर त्यागियोंको प्राण नाश होनेपर भी व्रतोंके दोषों के नाश करनेवाले और सब प्रकारके सुखोंकी खानि ऐसे सर्वोत्तम आवश्यक कभी नहीं छोड़ने चाहिये ॥१०१।। जिस प्रकार विना दांतोंके हाथी शोभायमान नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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