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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
४२९ षडङिवधिकानां च सावद्याहारसेविनाम् । कयं स्यावशनं लोके संवेगं चाङ्गिवाधनात् ॥७७ सदोषान्नरतो याति गृहस्थत्वं यतिः कुधीः । हिंसयोभयभ्रष्टत्वं वा वानादिकवर्जनात् ॥७८ गृहस्थत्वं परित्यज्य दीक्षामादाय योऽधमः । सदोषमत्ति प्राहारं तस्य दीक्षा वृथा भवेत् ॥७९ पापासनं महानिन्द्यं यो जिह्वालम्पटोऽत्ति ना। तस्येह जायते लोके कुकीतिर्जन्तुघातनात् ॥८० न स्यात्सुखममुत्रापि निर्दयान्वितचेतसाम् । भूरिदुःखं भवेन्ननं पापदुर्गतिजं धनम् ॥८१ अच्यं वरं गृहस्थत्वं यतित्वं न कलङ्कितम् । इन्द्रियाहारदोषैश्च रागद्वेषादिकैर्नृणाम् ॥८२ श्रेष्ठं हालाहलं भुक्तं यत्सकृत्प्राणनाशनम् । सदोषान्नं पुनर्नव संसाराम्बुधिपातनम् ॥८३ इति मत्वा सदा त्याज्यं दोषाढयं प्रान्नमञ्जसा । अखाद्यमिव नादेयं प्राणान्तेऽपि व्रतान्वितैः ॥८४ निर्दोषाहारिणां सर्व तपोव्रतयमादिकम् । भवेन्मोक्षतरोर्बोज सफलं पुण्यपुण्यदम् ।।८५ जन्मेह सफलं तस्य येन जिह्वा वशीकृता । बद्ध्वा वैराग्यपाशेन त्यक्तेन्द्रियसुखस्य वै ॥८६ धर्मध्यानेन स्थातव्यं प्रत्यहं स्वर्गमुक्तये । संसारे भयभीतैश्च भावनादिपरायणैः ॥८७ ध्यानं वाध्ययनं नित्यं कार्यं सद्गुणशालिभिः । प्रयत्नेन क्षयायैव कर्मणां दुःखदायिनाम् ॥८८ प्रमादेन न नेतव्या चैका कालकला क्वचित् । मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य धर्मध्यानं विना बुधैः ॥८९
जीवोंकी हिंसा होती है ॥७६।। जो त्यागो सदोष आहार ग्रहण करते हैं वे छहों कायके जीवोंकी विराधना करते हैं इसलिए जीवोंकी हिंसा होनेसे उनका आहार इस संसारमें संवेगको बढ़ानेवाला कैसे हो सकता है ? ।।७७। जो अज्ञानी मुनि सदोष आहारमें लीन रहता है वह गृहस्थपनेको प्राप्त होता है तथा हिंसा करनेके कारण वह दोनों ओरसे भ्रष्ट होता है क्योंकि गृहस्थपनेको प्राप्त होकर भी वह दान पूजा आदि गृहस्थोंके शुभ कर्म नहीं करता ।।७८॥ जो नीच गृहस्थाश्रम छोड़कर दीक्षा धारण करता है और फिर भी सदोष आहार ग्रहण करता है उसका दीक्षा लेना व्यर्थ ही समझना चाहिए ॥७९|| जिह्वा लंपटी जो पुरुष महा निंद्य पापरूप आहार ग्रहण करता है वह अनेक जीवोंकी हिंसा करता है और इसीलिए संसारमें उसकी अपकीर्ति होती है ॥८०॥ सदोष आहार ग्रहण करनेवाले व्रतियोंका हृदय निर्दय रहता है, इसलिए उनको परलोकमें भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसे लोगोंको परलोकमें पाप और दुर्गतियोंसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके भारी-भारो दुःख भोगने पड़ते हैं ।।८।। निर्दोष गृहस्थ पद अच्छा परन्तु इन्द्रिय सेवन, स्त्री जन्य दोष वा राग, द्वेष आदिसे कलंकित हुआ मनुष्योंका मुनिपद अच्छा नहीं ।।८२॥ एक बार प्राणोंका नाश करनेवाला हलाहल विष खा लेना अच्छा परन्तु संसाररूपी समुद्रमें डुबानेवाला सदोष आहार ग्रहण करना अच्छा नहीं ।।८३।। यही समझकर व्रती पुरुषोंको प्राण नाश होनेपर भी अभक्ष्यके समान सदोष आहारका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ॥८४॥ जो त्यागी निर्दोष आहार ग्रहण करते हैं उन्हींका तप, व्रत, यम आदि सब सफल है, उन्हींके तप यमादिक मोक्षरूपी वृक्षके बीज हैं और पुण्यको अतिशय संचय करने वाले हैं ।।८५|| जिसने अपने समस्त इन्द्रियोंके सुखोंका त्याग कर दिया है और वैराग्यरूपी जाल में फंसकर जिसने अपनी जीभको वश में कर लिया है उसीका जन्म इस संसारमें सफल माना जाता है ।।८६।। संसारसे भयभीत होनेवाले और भावनाओंमें तत्पर रहनेवाले व्रती त्यागियोंको स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करनेके लिए प्रतिदिन धर्मध्यानपूर्वक रहना चाहिए ||८७॥ श्रेष्ठ गुणोंको धारण करनेवाले त्यागियोंको दुःख देनेवाले कर्म नाश करनेके लिए सदा प्रयत्नपूर्वक ध्यान और अध्ययनमें ही अपना समय बिताना चाहिए ॥८॥ विद्वान् पुरुषोंको यह दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर सदा
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