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________________ ४२८ श्रावकाचार-संग्रह विनान्तरायं न स्तोकं प्रान्नं त्याज्यं क्वचिन्न वै । हिंसादिविरतैर्दक्षैर्यतो हिंसा प्रवर्तते ॥६४ यद्यागतोऽत्र वै कोऽपि प्रान्तरायः स्वभोजने। तदा स्वान्नं प्रभुक्तं वा न भुक्तं वा त्यजेद्यतिः ॥६५ ततःप्रासुकनीरेण विधायाचमनं व्रती। प्रक्षाल्य भाजनं प्रायात् सद्गुरोः निकट द्रुतम् ॥६६ गुरुं प्रणम्य सङ्ग्राह्यं प्रत्याख्यानं चतुर्विधम् । तन्मुखावतिना धर्मध्यानसंयुक्तचेतसा ॥६७ एवं सदा प्रकर्तव्यं भिक्षाहारं व्रतोचितम् । यावज्जीवं प्रयत्नेन निष्पापाहारभोगिना ॥६८ स्ववीर्य प्रकटीकृत्य तपः कुर्याद् द्विषड्विधम् । सदोपवासभेदादिसम्भवं कर्मघातकम् ॥६९ षष्ठाष्टमादिसञ्जातं सोपानं स्वर्गधामनि । मुक्तेर्वशीकरं घोरं संसाराम्बुधितारकम् ॥७० शक्रचक्रेशतीर्थेशपदादिप्रापणे क्षमम् । सर्वशक्त्या करोत्येव तपः कर्मादिशङ्किता ॥७१ कृत्वा बहपवासं च न ग्राह्यं पारणादिके । अधःकर्मभवाहारं पापदं व्रतधारिभिः ॥७२ वरं प्रत्यहमाहारं निःसावा यथोचितम् । न च मासोपवासादिपारणे दोषसंयुतम् ।।७३ यथोक्तव्यवहारस्य शुद्धिः सद्गृहमेधिनाम् । यतीनां च तथा सा हि भिक्षाशुद्धिरुदाहृता ॥७४ बहूपवासं मौनं च स्थानं वीरासनादिकम् । सदोषाहारिणां सर्व व्यर्थ स्याद्विषदुग्धवत् ॥७५ अहिंसाख्यं व्रतं मूलं व्रतानां मुक्तिसाधकम् । नश्येत् षड्जीवघातेन सदोषाहारग्राहिणाम् ॥७६ व्रती मनुष्योंके लिये यह भी भोजनका अन्तराय माना जाता है ।।६३|| हिंसाका त्याग करनेवाले चतुर पुरुषोंको विना अन्तरायके थोड़ासा भी अन्न नहीं छोड़ना चाहिए, सब खा लेना चाहिए क्योंकि अन्नके छोड़नेसे हिंसाकी प्रवृत्ति होती है ।।६४॥ यदि भोजनमें कोई अन्तराय आ जाय तो चाहे वह भोजन खाया हो, वा न खाया हो, उद्दिष्ट त्यागीको वह अवश्य छोड़ देना चाहिए ॥६५।। तदनन्तर व्रती श्रावकको (उद्दिष्ट त्यागीको) प्रासुक जलसे आचमन (कुल्ला) कर लेना चाहिए और फिर अपना पात्र धोकर शीघ्र ही अपने गुरुके समीप चले जाना चाहिए ।।६६।। गुरुको नमस्कार कर अपने हृदयको धर्म ध्यानमें तल्लीन करनेवाले व्रतीको उनके मुखसे ही चारों प्रकारका प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए ॥६७।। इस प्रकार पापरहित आहारकी प्रवृत्ति करनेवाले व्रती त्यागीको अपने जीवनपर्यन्त प्रयत्नपूर्वक सदा इसी प्रकार आहार ग्रहण करना चाहिए ॥६८।। व्रती त्यागियोंको अपनी शक्तिको प्रगट कर अनशन आदि बारह प्रकारका तप करना चाहिए तथा बेला तेला आदि भी करना चाहिये। संसारमें यह तप ही स्वर्गरूपी महलकी सीढ़ी है, मुक्तिको वश करनेवाला है, अत्यन्त कठिन है, संसाररूपी समुद्रसे पार करनेवाला है, तथा इन्द्र, चक्रवर्ती और तीथंकर आदिके पद देनेवाला है। इसलिए कर्मोंसे डरनेवाले त्यागियोंको ऐसा तपश्चरण अवश्य करना चाहिए ॥६९-७१।। व्रती त्यागियोंको अनेक उपवास करके भी पारणाके दिन नीच वा निन्द्य क्रियाओंसे उत्पन्न हुआ और पाप बढ़ानेवाला आहार कभी नहीं लेना चाहिए ॥७२।। यथायोग्य और निर्दोष आहार प्रतिदिन ग्रहण करना अच्छा परन्तु एक महीनाके उपवासके बाद किये हुए पारणाके दिन सदोष आहार ग्रहण करना अच्छा नहीं ॥७३।। जिस प्रकार यथायोग्य व्यवहार करनेवाले सद्गृहस्थोंकी शुद्धि बतलाई है उसी प्रकार क्षुल्लक वा मुनियोंको भी भिक्षा शुद्धि कही गई है ॥७४।। जो त्यागी सदोष आहार ग्रहण करते हैं उनके विषमिले दूधके समान अनेक उपवास, मौन, और वीरासन आदि स्थान सब व्यर्थ हैं ।।७५।। समस्त व्रतोंमें अहिंसावत ही प्रधान है, यह व्रत सब व्रतोंकी जड़ हैं और मोक्षका साधक है, वही अहिंसाव्रत सदोष आहार ग्रहण करनेवालोंके नहीं हो सकता क्योंकि सदोष आहार ग्रहण करनेसे छहों कायके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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