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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार अनग्निपक्कमाहारं बीजकन्दफलादिकम् । पत्र-पुष्पादिकं नैव निन्द्यं गृह्णाति सद्बती ॥५१ आहारं न समादेयं यद् रात्र्येकद्विसंस्थितम् । स्वस्वादचलितं जन्तुयुक्तं सद्ब्रह्मचारिणा ॥५२ न ग्राह्यं वतिना निन्द्यं प्राहारं मोदकादिकम् । कामाग्निदीपकं तीवं विषान्नमिव सर्वथा ॥५३ लम्पटत्वं भजेज्जिह्वा येन कामोत्कटो भवेत् । तत्त्याज्यं यतिना वान्नं दुग्धादिरससंयुतम् ॥५४ पश्चादेकगहे स्थित्वा प्रातिभिक्षां तथाविधाम् । क्षुधारोगशमाथं च जिह्वानिग्रहतत्परः ॥५५ रूक्षं स्निग्धं तथा शीतमुष्णं वा लवणान्वितम् । त्यक्तसल्लवणं वापि त्यक्तस्वादुं यथागतम् ॥५६ रात्रौ स्थितं न चादेयं तक्रं जीवसमाकुलम् । संयतैर्दधिपापादिभीतैः सावद्यकारणम् ॥५७ आमिषं रुधिरं चर्म वास्थि मद्यं वधोऽङ्गिनः । प्रत्याख्यानं स्वभुक्तेरन्तरायं सप्तधा भवेत् ॥५८ यः पश्यति पलं कुर्वन्भोजनं स व्रती स्वयम् । अन्तरायं भजेत्सोऽपि भोजनस्य स्ववीर्यदम् ॥५९ पश्येद्यो रुधिरस्यैव चतुरङ्गलसम्मितम् । धारां भुक्त्वान्वितस्तस्य प्रान्तरायः प्रजायते ॥६० पश्येद्यद्यार्द्रचर्माशु शुष्कं यो वा स्पृशेत्क्वचित् । भोजने चागतं चास्थि सोऽन्तरायं भजेद्यमो ॥६१ मद्यधारां समालोक्य त्यजेदाहारमञ्जसा । बधं च द्वीन्द्रियादीनां घृततक्रादिके व्रती ॥६२ अन्तरायो भवेन्नणां त्यक्तवस्त्वादिभक्षणात् । व्रतादिभङ्गतश्चापि पापसङ्गादिहेतुतः ॥६३
चाहिए। यदि न मिले तो दूसरे घरमें जाना चाहिए । भिक्षाके मिलने न मिलने दोनोंमें सन्तोप धारण करना चाहिए ॥५०॥ व्रती क्षुल्लकोंको अग्निपर विना पकाया हुआ आहार, बोज, कन्द, फल, पत्र, पुष्प, आदि निन्द्य आहार कभी नहीं लेना चाहिए ॥५१।। जो आहार एक या दो रात्रिका रखा हुआ हो, अपने स्वादसे चलित हो गया हो, और जिसमें जीव हों ऐसा आहार ब्रह्मचारी क्षुल्लकोंको कभी नहीं लेना चाहिए ॥५२॥ जो आहार कामाग्निको बढ़ानेवाला है और जो तीव्र है, ऐसे लड्डू आदि निन्द्य आहार विषमिले अन्नके समान क्षुल्लकोंको सर्वथा नहीं लेना चाहिए ॥५३॥ जिससे जिह्वामें लम्पटता आ जाय और जो कामको उत्तेजित करनेवाला हो ऐसा दूध आदिसे मिला हुआ अन्न व्रती क्षुल्लकोंको त्याग कर देना चाहिए ॥५४॥ तदनन्तर क्षुधा रोगसे असमर्थ हुए उस क्षुल्लकको किसी एक घरमें बैठकर वह भिक्षामें प्राप्त हुआ भोजन खा लेना चाहिए। उस समय उसे अपनी जिह्वा इन्द्रिय वशमें कर लेनी चाहिए और रूखा चिकना, ठंडा गर्म, नमकीन विना नमकका स्वाद रहित जैसा कुछ आ गया है वैसा सब भोजन उसे कर लेना चाहिए ॥५५-५६|| पापसे डरनेवाले व्रती क्षुल्लकोंको अनेक पापोंका कारण और अनेक जन्तुओंसे भरा हुआ ऐसा रात्रिका रक्खा हुआ दही अथवा छाछ कभी नहीं लेना चाहिए ॥५७।। मांस, रुधिर, चर्म, हड्डी, मद्य, जीवोंका वध और त्याग किया हुआ पदार्थ ये सात प्रकारके भोजनके अन्तराय गिने जाते हैं, क्षुल्लकोंको इनको टालकर भोजन करना चाहिए ॥५८॥ जो व्रती भोजन करता हुआ मांसको देख लेता है उसके शक्तिको बढ़ानेवाला भोजनका अन्तराय गिना जाता है ॥५९।। जो व्रती भोजन करता हआ चार अंगुल प्रमाण रुधिरकी धाराको देख लेता है उसके भी भोजनका अन्तराय समझा जाता है ॥६०॥ यदि भोजन करता हुआ व्रती गीले चमड़ेको देख ले अथवा सूखे चमड़ेसे उसका स्पर्श हो जाय वा किसी कारणसे भोजनमें हड्डी आ जाय तो वह भी भोजनका अन्तराय माना जाता है ॥६१॥ व्रतियोंको मद्यकी धारा देखकर आहार छोड़ देना चाहिए और घी अथवा छाछ आदिमें दो इन्द्रिय आदि जीवोंका घात हो गया तो भी आहार छोड़ देना चाहिए ॥६२|| त्याग किये हुए पदार्थोंका भक्षण कर लेनेसे व्रतोंका भंग होता है इसलिए
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