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________________ ४२६ श्रावकाचार-संग्रह क्षालितव्यं न तद्वस्त्रां पापभीतैवतात्मजः । अप्रासुकजलेनैव जन्तुसङ्घातपातनात् ॥३९ जीवयुक्तजलेनैव ये वस्त्रां क्षालयन्ति भो । अहिंसाख्यं व्रतं तेषां नश्येज्जन्तुविघातनात् ॥४० भिक्षायै भाजनं स्वल्पं ग्राह्यं चौरभयातिगम् । विरागं त्यक्तसन्मानरक्षाचिन्तादिक नरैः ॥४१ स्थाल्यादिकं महामूल्यं नादेयं व्रतधारिभिः । रागद्वेषमहाचिन्ताभयशोकादिसद्गृहम् ।।४२ द्रव्याढयभाजनान्न स्याद्धर्मध्यानं व्रतादिकम् । चौरादिग्रहणात्पुंसां चार्तध्यानं प्रजायते ॥४३ इति मत्वा न तद्ग्राह्य धर्मध्यानादितत्परैः । वीतरागं परित्यज्य शङ्काचिन्ताकरं क्वचित् ॥४४ योग्यकाले तदादाय मुहूर्ते सप्तसङ्गते । दिने परिग्रहे योग्ये भिक्षार्थं सम्भ्रमेत् व्रती ॥४५ न शीघ्रं गमनं चैव कुर्यान्मन्दं न सद्यतिः। विलम्बितं न सन्मार्गे स्थित्वा नैव प्रजल्पनम् ॥४६ निरोक्ष्य यत्नतो भूमि चतुर्हस्तप्रमाणकम् । नयनाभ्यां न्यसेत्पादं सर्वसत्त्वदयापरः ॥४७ वैराग्यं भावयन् गच्छेत् देहभोगभवादिषु । सद्गृहं त्यक्तसन्दोषं भिक्षान्वेषणतत्परः ॥४८ श्रीहीनोऽयं धनाढ्योऽयं चेति चिन्तां परित्यजेत् । विशेदनुक्रमेणैव गृहपक्ति स संयमी ॥४९ गृहद्वारं समासाद्य प्राप्य भिक्षां न वा ततः । लाभालाभेन सन्तुष्टो विशेदन्यगृहं पुनः ॥५० है ॥३७॥ जो कुमार्गगामी पुरुष लोभके कारण सुन्दर वस्त्रोंको ग्रहण करता है उनके उस वस्त्रके चले जाने आदिका सदा भय लगा रहनेके कारण धर्मध्यान आदि सब नष्ट हो जाता है ॥३८॥ व्रती क्षुल्लकोंको पापके डरसे अप्रासुक जलसे कभी उन वस्त्रोंको नहीं धोना चाहिए क्योंकि उन वस्त्रोंके धोनेमें अनेक जीवोंकी हिंसा होगी ॥३९॥ __ जो व्रती अप्रासुक जलसे ही अपने वस्त्रोंको धो डालते हैं उनके अनेक जीवोंकी हिंसा होनेसे अहिंसावत कभी नहीं पल सकता ॥४०॥ व्रती क्षुल्लकोंको भिक्षाके लिये एक छोटासा पात्र रखना चाहिये और वह ऐसा होना चाहिये जिसके रखने में चोरी आदिका डर न हो, जो वीतराग रूप हो और जिसके रखनेमें अपनी मान मर्यादा व रक्षा करनेकी चिन्ता आदि न करनी पड़े ॥४१। व्रती क्षुल्लकोंको अधिक मूल्यकी थाली आदि कभी नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसे पात्रोंके रखने में राग, द्वेष, चिन्ता, भय, शोक आदि सब विकार उत्पन्न हो जाते हैं ॥४२॥ बहुमूल्यके पात्र रखने में धर्मध्यान नहीं हो सकता और न व्रत ही पल सकते हैं तथा उसके चोरी चले जानेसे मनुष्यके आर्तध्यान उत्पन्न होता है ।।४३।। यही समझकर धर्मध्यानादिकमें तत्पर रहनेवाले क्षल्लकोंको बहमल्यके और बड़े पात्र कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये । उनको वीतरागताको सूचित करनेवाला और जो शंका चिन्ता आदि न करनेवाला हो ऐसा छोटा पात्र ही रखना चाहिए ॥४४॥ उस पात्रको लेकर सात मुहूर्त दिन चढ़ जानेपर योग्य समयमें क्षुल्लक व्रतीको योग्य भिक्षाके लिए चर्या करनी चाहिए ॥४५॥ क्षुल्लकोंको भिक्षाके लिये न तो शीघ्र गमन करना चाहिए न धीरे-धीरे चलना चाहिए न देर करके जाना चाहिये और न मार्गमें खड़े होकर कुछ बातचीत करनी चाहिए ॥४६।। सब जीवोंपर दया करनेवाले क्षुल्लकोंको अपने दोनों नेत्रोंसे चार हाथ भूमि देखकर यत्नाचार पूर्वक पैर रखना चाहिए ॥४७।। भिक्षाके लिये चर्या करनेवाले क्षुल्लकको संसार शरीर और भोगोंमें वैराग्य धारण करते हुए निर्दोष श्रेष्ठ घर में प्रवेश करना चाहिए ॥४८॥ यह घर गरीबका है वा धनीका है ऐसा विचार संयमीको कभी नहीं करना चाहिये। तथा उसे घरको पंक्तियोंमें अनुक्रमसे ही प्रवेश करना चाहिए बोचमें किसी घरको छोड़ना नहीं चाहिए ॥४९।। संयमीको घरके दरवाजे तक जाना चाहिए, यदि भिक्षा मिल जाय तो ले लेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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