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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार पञ्चाचारं ये चरन्ति स्वयं वे सच्छिष्याणां चारयन्त्येव शुद्धम् । मुक्तेरङ्गं नित्यमाचारशुद्धेः वन्दे सर्वान् तान् सदा सूरिसंधान् ॥१३७ पठन्ति श्रुतमङ्गपूर्वजं पाठयन्ति च विनेयमुनीनाम् ।ज्ञानदं शुभश्रुताय पाठकाः, संस्तुवे पदयुगं खलु तेषाम् ॥१३८ ये सद्धर्ममहाब्धिमध्यविगता रत्नत्रयालङ्कृता ध्यानध्वस्तसमस्त किल्विष विषाः स्वर्मोक्षसंसाधकाः । अन्तातीतगुणास्तपोधनधना रत्नत्रये संस्थितास्तेषां तद्गुणप्राप्तये क्रमयुगं वन्दे यतीनां सदा ॥१३९ सौख्याकरं सकलभव्य हितं बुधाच्यं सम्पूजितं सुरगणैर्भुवनैकज्येष्ठम् । संसारत्रस्तमनसां शरणं परं यत् तच्छासनं जयतु श्रीजिनपुङ्गवानाम् ॥१४० गणधर मुनिसेव्यं विश्वतत्त्वप्रदीपं विगतसकलदोषं श्रीजिनेन्द्रः प्रणीतम् । खचरसुरसमच्यं ज्ञानसिद्धयै प्रवन्दे निखिलसुखनिधानं ज्ञानमेवात्र सारम् ॥१४१ उपासकाख्यो विबुधैः प्रपूज्यो ग्रन्थो महाधर्मंकरो गुणाढ्यः । समस्त कोर्त्यादिमुनीश्वरोक्तः सुपुण्यहेतुर्जयतात् धरित्र्याम् ॥१४२ ४३५ शरीर के भारसे रहित हैं, सारभूत अनन्त सुखोंकी खानि हैं, अत्यन्त निर्मल हैं, जो मध्य अन्त रहित हैं और जो धर्मको प्रदान करनेवाले हैं, ऐसे श्री सिद्ध भगवान्‌के समस्त गुण प्राप्त करनेके लिए मैं उनका प्रतिदिन ध्यान करता हूँ || १३६ || जो आचार्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप और वीर्यं इन पाँचों आचारोंको स्वयं पालन करते हैं और शिष्योंसे पालन कराते हैं तथा जो शुद्ध आचरणोंके द्वारा मोक्षके कारण बने रहते हैं ऐसे समस्त आचार्योंको में सदा नमस्कार करता हूँ ॥१३७॥ जो उपाध्याय ज्ञान देनेवाले अंगपूर्वरूप श्रुतज्ञानको स्वयं पढ़ते हैं और अपने शिष्य मुनियोंको पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय परमेष्ठीके चरणकमलोंकी में शुभ श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए स्तुति करता हूँ || १३८ || जो मुनिराज सद्धर्मरूपी महासागर के मध्य में विराजमान हैं, जो रत्नत्रय से सुशोभित हैं, जिन्होंने अपने ध्यानसे समस्त पापरूपी विष धो डाला है, जो स्वर्ग मोक्षको सिद्ध करनेवाले हैं, अनन्त गुणोंको धारण करनेवाले हैं, जो तपश्चरणरूपी धनसे ही धनी हैं, और जो रत्नत्रयमें सदा लीन रहते हैं ऐसे मुनिराजो के समस्त गुण प्राप्त करनेके लिए मैं उनके चरणकमलों को सदा नमस्कार करता हूँ || १३९ || यह श्री तीर्थंकर परमदेवका शासन सब सुखोंकी खानि है, समस्त भव्यों का हित करनेवाला है, इन्द्रादि समस्त देव भी इसकी पूजा करते हैं, यह तीनों लोकों में सर्वोत्तम है, और जिनका मन संसारसे भयभीत है उनके लिए परम शरण है, ऐसा यह श्री तीर्थंकर परमदेवका शासन ( जैनमत) सदा जयशील हो || १४० || इस संसार में सम्यग्ज्ञान ही सार है, गणधर और मुनिराज भी इसकी सेवा करते हैं, यह समस्त तत्त्वोंको प्रगट करने के लिए दीपक समान है, समस्त दोषोंसे रहित है, श्री जिनेन्द्रदेवने स्वयं इसका निरूपण किया है, देव विद्याधर सब इसकी पूजा करते हैं और यह समस्त सुखोंकी निधि है ऐसे सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करने के लिए मैं उसे नमस्कार करता हूँ ॥ १४१ ॥ यह उपासकाचार ( प्रश्नोत्तर श्रावकाचार) ग्रन्थ देवोंके द्वारा भी पूज्य है, उत्तम धर्मका निरूपण करनेवाला है, अनेक गुणोंसे भरपूर है, उत्तम पुण्यका कारण है और श्री सकलकीर्ति मुनिराजका बनाया हुआ है ऐसा यह प्रश्नोत्तर श्रावकाचार संसारभरमें जयशील हो || १४२ ॥ | यह ग्रन्थ न तो कीर्ति बढ़ाने के लिए बनाया गया है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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