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________________ चौबीसवाँ परिच्छेद महावीरं जगत्पूज्यं कर्मशत्रु विनाशकम् । भव्यपद्माकरे सूर्यं वन्दे सिद्धचै गुणार्णवम् ॥१ सङ्गत्यागं समाख्याय पापानुमतिवर्जनम् । व्रतं वक्ष्ये समासेन सर्वसावद्यशान्तये ॥२ आरम्भे गृहकर्मादौ कृष्यादिकरणे तथा । वाणिज्यादौ विवाहादौ कार्येऽन्यस्मिन् तथाविधौ ॥३ यो धर्मात नैव पापभीतो दयापरः । प्रतिमां दशमों सोऽपि श्रयेत्पुण्यकरां वराम् ॥४ मनःसङ्कल्पतो लोके पापं सञ्जायते नृणाम् । विना प्रयोजनं घोरं श्वभ्रतिर्यग्निबन्धनम् ॥५ उत्पद्यते क्वचित्पापं कायेन वचसा तथा । चित्तप्रचलतो लोके पुंसां घोरं निरन्तरम् ॥६ अहोरात्रौ मनः पापं तनोति निग्रहं विना । अनुमत्यादियोगेन महासावद्यकर्मणा ॥७ यः करोति गृहारम्भं यो धत्तेऽनुर्मात शठः । द्वयोरपि समं पापं प्रोक्तं श्रीजितस्वामिना ॥८ शालिशिक्याख्य मत्स्योऽगात्स्वयंभू रमणार्णवे । महामत्स्यस्य पापेन श्वभ्रं स्वस्य विकल्पतः ॥९ इति मत्वा सुधीनित्यं न घत्तेऽनुमति क्वचित् । हिंसारम्भादिसङ्कायें पापभीतो व्रतैर्युतः ॥१० नीरसे सरसे वापि स्वान्यस्य गृहसम्भवे । आहारे विविधे ज्ञानी कुर्यान्नानुर्मात व्रती ॥११ दक्षैराहा रमादेयं कृतादिकविर्वाजितम् । हत्वा रागं यथालब्धं स्वगृहे वा परगृहे ॥ १२ सर्वेषु गृहकार्येषु यः सङ्कल्पं निवारयेत् । न तस्याशुभकर्मादिबन्धः स्याद्धि क्वचित्क्षणे ॥ १३ जो श्री वर्द्धमानस्वामी जगतपूज्य हैं, भव्यरूपी कमलोंके लिए सूर्य हैं और गुणोंके समुद्र हैं। ऐसे श्री महावीरस्वामीको में सिद्धपद प्राप्त करनेके लिए नमस्कार करता हूँ || १|| ऊपर लिखे अनुसार परिग्रह त्याग प्रतिमाका निरूपण कर अब समस्त पापोंको शान्त करनेके लिए संक्षेपसे पापरूप अनुमतिका त्याग करने रूप अनुमति त्याग नामकी दशवीं प्रतिमाको कहते हैं ||२|| जो दयालु मनुष्य पापोंसे डरकर किसी आरम्भमें, घरके काममें, खेती करनेमें, व्यापार में, विवाहादि कार्यों में तथा और भी ऐसे ही कार्योंमें अपनी सम्मति नहीं देता है उसके पुण्य बढ़ानेवाली दशवीं उत्तम प्रतिमा होती है || ३-४ ॥ संसारमें मनके संकल्प करने मात्रसे मनुष्योंको विना ही प्रयोजनके नरक तिर्यञ्च गतिका कारण ऐसा घोर पाप उत्पन्न होता है ||५|| शरीरसे और वचनसे तो कभी- कभी पाप होता है परन्तु संसारमें मनकी प्रबलतासे मनुष्योंको निरन्तर घोर पाप लगता रहता हैं ||६|| विना वश किया हुआ यह मन महापापरूप कार्यों में सम्मति देकर रात्रि दिन पाप करता रहता है ||७|| जो मूर्ख घरके आरम्भ करता है और जो उसमें सम्मति देता है उन दोनोंको एकसा पाप लगता है ऐसा श्रीजिनेन्द्रदेवने कहा है || ८ || स्वयंभूरमणसमुद्रमें जो तन्दुल मत्स्य है वह महामत्स्यके पापोंका संकल्प करनेसे ही नरकमें जाकर पड़ता है ||९|| यही समझकर व्रती बुद्धिमानोंको पापोंसे डरकर हिंसा आदि पापरूप कार्यों में तथा घनमें अपनी सम्मति कभी नहीं देनी चाहिए ||१०|| व्रती श्रावकको अपने वा दूसरेके घर नीरस व सरस अनेक प्रकारके आहारमें जान-बूझकर कभी सम्मति नहीं देनी चाहिये ||११|| चतुर व्रतियोंको राग छोड़कर अपने घर वा दूसरेके घर जहां कहीं कृत कारित अनुमोदना आदि दोषोंसे रहित आहार मिल जाय वहीं कर लेना चाहिए || १२|| जो व्रती घर सम्बन्धी समस्त कार्योंमें अपनी सम्मति देनेका त्याग कर देता है उसके किसी समय में भी अशुभ कर्मोंका बन्ध नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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