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________________ ४२३ धावकाचार-संग्रह अन्तातीतगुणप्रदं सुविमलं स्वर्मुक्तिसम्पादकं धर्म्यध्याननिबन्धनं शुभनगारामं सुरैः पूजितम् । चिन्तात्यक्तसुखास्पदं बुधजनैः सेव्यं प्रणीतं जिनैः भो हिंसादिविजितं भज सदा त्वं त्यक्तसङ्गं व्रतम् ॥१४९ षष्ठयादि नव पर्यन्तं प्रतिमां योऽत्र पालयेत् । त्रिशुद्धया स जिनरुक्तो मध्यमः श्रावको भुवि ॥१५० इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे ब्रह्मचर्यादिप्रतिमानवप्ररूपको नाम त्रयोविंशतितमः परिच्छेदः ॥२३॥ लोगोंके द्वारा धारण किया जाता है, समस्त सुखोंका सागर है, मोक्ष प्राप्त कराने में चतुर है, समस्त संसारमें पूज्य है और दुःख चिन्ता आदिसे दूर है, इसलिए हे भव्य ! निर्मल गुणोंको प्राप्त करनेके लिये तू इस परिग्रह त्याग व्रतको (नौवीं प्रतिमाको) अवश्य धारण कर ॥१४८|| यह परिग्रह त्याग व्रत अनन्त गुणोंको देनेवाला है, अत्यन्त निर्मल है, स्वर्ग मोक्षमें पहुंचा देनेवाला है, धर्मध्यानका कारण है, पुण्यरूपी वृक्षोंके लिये बाग है, देवोंके द्वारा पूज्य है, चिन्ता आदि दोषोंसे रहित है, सुखका घर है, विद्वानोंके द्वारा सेवा करने योग्य है, अत्यन्त पवित्र है और हिंसादि पापोंसे सर्वथा रहित है । हे भव्य ! ऐसे इस परिग्रह त्याग व्रतको तू सदा धारण कर ॥१४९॥ जो पुरुष मन, वचन, कायकी शुद्धता पूर्वक दर्शन प्रतिमासे लेकर परिग्रह त्याग नामकी नौवीं प्रतिमा तक नौ प्रतिमाओंका पालन करते हैं वे इस संसारमें श्री जिनेन्द्रदेवके द्वारा मध्यम श्रावक कहे जाते हैं ॥१५॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग प्रतिमाओंका निरूपण करनेवाला यह तेईसवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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