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________________ ४२१ प्रश्नोत्तरवावकाचार परिग्रहवतां पुंसां शुद्धिः स्वप्नेऽपि दुघंटा। मनसो ध्यानसिद्धयर्थ पापहीनाः गुणाकराः ॥१३६ सङ्गत्यागो जिनैरुक्तो मनःशुद्धयर्थमञ्जसा । नृणां तस्यापरित्यागावतं स्यात्तुषखण्डनम् ॥१३७ दृषन्नावसमारूढो यथा मज्जति नार्णवे। तथा च सङ्गभारेण व्रती संसारसागरे ॥१३८ एवं दोषं परिज्ञाय सङ्गं यो वर्जयेत्सुधीः । मुक्तिश्रीः स्वयमायाति धर्मात्स्वर्गश्रिया समम् ॥१३९ मन्ये स एव पुण्यात्मा यस्या सा निधनं गता। द्रव्यादिष्वत्र तेनैव भूषिता पृथिवी गुणात् ॥१४० द्रव्यादिके समादत्ते सन्तोषं यो नरोत्तमः । तं सुसम्पत्समायाति सर्वलोकत्रये स्थिता ॥१४१ शक्रत्वं चक्रवतित्वं गणेशत्वं जिनेशिता । भवत्येव न सन्देहः सन्तोषाद् वतिनां शुभात् ॥१४२ ये लोभं वर्जयन्त्येव धनादौ तेऽतिलोभिनः । स्युरत्रामुत्र स्वर्गादिमुक्तिपर्यन्तसौख्यके ॥१४३ लभ्यतेऽत्र यथा लोके ख्यातिपूजादिकं नरैः। निस्पृहत्वेन तद्वच्च परत्र सुखमञ्जसा ॥१४४ निस्पृहत्वेन स्याच्चित्तशुद्धिानं पुनस्तया । ध्यानाकर्मक्षयस्तस्मान्मुक्तिरेव न संशयः ॥१४५ तत्रानन्तसुखं सारं नित्यं त्यक्तोपमं बुधैः । प्राप्यते विषयातीतं स्वात्मजं परमं वरम् ॥१४६ इत्येवं च परिज्ञाय गुणं सन्तोषजं बुधाः । हत्वा लोभं दुरायं तं कुरुध्वं भो सदा बलात् ॥१४७ अखिलगुणनिधानं धर्मसत्त्वनिषेव्यं सकलसुखसमुद्रं मुक्तिसन्दानदक्षम् । निखिलभुवनपूज्यं दुःखचिन्तादिदूरं भज विमलगुणाप्त्यै त्यक्तसङ्गं व्रतं त्वम् ॥१४८ जो मनुष्य परिग्रह रखते हैं उनके ध्यान सिद्ध होनेके लिए समस्त पापोंसे रहित और गुणोंकी खानि ऐसी मनकी शुद्धि होना अत्यन्त कठिन है ।।१३६।। भगवान् जिनेन्द्रदेवने परिग्रहोंका त्याग मनुष्योंका मन शुद्ध करनेके लिये बतलाया है, तथा परिग्रहोंका त्याग किये विना व्रतोंका पालन करना (नौवों प्रतिमा धारण करना) छिलके कूटनेके समान है-अर्थात् छिलके कूटनेसे जैसे चावल नहीं निकलते उसी प्रकार परिग्रहोंका त्याग किए विना यह प्रतिमा हो नहीं सकती ॥१३७॥ जिस प्रकार पत्थरकी नाव पर बैठा हुआ मनुष्य अवश्य ही समुद्र में डूबता है उसी प्रकार व्रती मनुष्य भी परिग्रहके भारसे इस संसार-सागरमें अवश्य डूबता है ।।१३८॥ इस प्रकार परिग्रहके दोषोंको समझकर जो बुद्धिमान् इन परिग्रहोंका त्याग कर देता है उसके पास स्वर्गरूपी लक्ष्मीके साथ-साथ मुक्तिरूपी लक्ष्मी अपने आप आ जाती है ॥१३९॥ इस संसारमें जिसकी इच्छा धनादिकसे नष्ट हो जाती है, संसारमें मैं उसीको पुण्यवान मानता हूँ और उसीसे ये पृथिवीके सब गुण सुशोभित होते हैं ।।१४०।। जो उत्तम मनुष्य धनादिकमें सन्तोष धारण करता है उसके पास तीनों लोकोंमें रहनेवाली सब लक्ष्मी अपने आप आ जाती है ॥१४१।। सन्तोष धारण करनेसे व्रती पुरुषोंको पुण्यकर्मके उदयसे इन्द्र, चक्रवर्ती, गणधर और तीर्थंकर आदिके समस्त उत्तम पद प्राप्त होते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं ॥१४२।। जो पुरुष इस लोकमें धनादिसे अपना लोभ छोड़ देते हैं वे परलोकमें स्वर्ग मोक्षतकके सुख प्राप्त करते हैं ॥१४३॥ निर्लोभी मनुष्य जिस प्रकार इस लोकमें यश, बड़प्पन आदि प्राप्त करते हैं उसी प्रकार उन्हें परलोकमें भी अनेक प्रकारके सुख प्राप्त होते हैं ॥१४४॥ लोभका त्याग करनेसे मन शुद्ध होता है, मन शुद्ध होनेसे ध्यान होता है, ध्यानसे कर्म नष्ट होते हैं और कर्म नष्ट होनेसे मोक्ष प्राप्त होती है इसमें कोई सन्देह नहीं। तथा मोक्षमें विद्वानोंको समस्त विषयोंसे रहित, संसारमें अन्य कोई जिसकी उपमा नहीं ऐसा आत्मासे उत्पन्न हुमा परमोत्तम सारभूत अनन्त सुख सदा प्राप्त होता रहता है ॥१४५-१४६|| विद्वानोंको सन्तोषके इस प्रकार गुण जानकर पाप उत्पन्न करनेवाला लोभ छोड़ देना चाहिए और परिग्रह त्याग नामका व्रत धारण करना चाहिए ॥१४७।। यह परिग्रह त्याग नामका व्रत समस्त गुणोंकी निधि है, धर्मात्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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