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________________ ४२० श्रावकाचार-संग्रह इत्येवं दशभेदं यः सङ्गं वस्त्रं विना त्यजेत् । हत्वा स्वमनसो मूच्छा नवमी प्रतिमां श्रयेत् ॥१२३ सर्व परिग्रहं योऽपि पीत्वा सन्तोषजामृतम् । त्यजेन्न प्रत्यहं तस्य सुखमत्रोव स्वात्मजम् ॥१२४ कामोद्रेकोऽतिमाया च लोभक्रोधोऽतिदुस्सहम् । मनोद्वेषश्च रागश्च चिन्ताशोकभयादिकम् ॥१२५ आशा तन्नाशतो दुःखं मानभङ्गो नृणां भुवि । रूप्यहेमादिकाद् द्रव्यादसत्यं जायते वचः ॥१२६ इति मत्वा न संग्राह्यं कृष्णाहिमिव तद्धनम् । स्वप्नेऽपि धर्मसिद्धयर्थ क्वचित्सद्वतधारिभिः ॥१२७ वस्त्रां नैव समादेयं रागदं बहमूल्यजम् । वीतरागं परित्यज्य दक्षैश्चिन्तादिकारकम् ॥१२८ व्रतहीनो नरो नैव रक्षणीयः कदाचन । स्वपार्वे व्रतसंयुक्तः शुश्रूषादिकहेतवे ॥१२९ मठादिकं न च ग्राह्य स्वस्याधिष्ठानकारणम् । हिंसादिकरमप्युच्चैः ममत्वादिप्रदं बुधैः ॥१३० चतुष्पदं न चादेयं जीवघातकरं सदा। भाजनं रागसंयुक्तं पापदं व्रततत्परैः ॥१३१ यत्किञ्चिन्मुनिना निन्द्यं सद्वतादिमलप्रदम् । तत्सर्व नाश्रयेत्सङ्ग विषान्नमिव सवती ॥१३२ द्रव्यादिकं परित्यक्तुं योऽक्षमो नात्र लोभतः । स क्लीबः कथमग्रेति कर्मसैन्यं हनिष्यति ॥१३३ यः परित्यज्य सङ्गंन मुक्तिमिच्छति मन्दधीः । सः पङ गुः प्रस्खलनमार्गे कथं मेरुं च लङ्घयेत् ॥१३४ सङ्गेन सह ये मोक्षं वाञ्छन्ति विधिवञ्चिताः । खपुष्पैरिह ग्रन्थन्ति ते बन्ध्यासुतशेखरम् ॥१३५ छोड़कर तथा अपने मनको इच्छाको रोककर बाकीके सब परिग्रहोंका त्याग कर देता है उसके नौवीं प्रतिमा कही जाती है ।।१२२-१२३।। जो मनुष्य सन्तोषरूपी अमृतको पीकर सब तरहके परिग्रहोंका त्याग कर देता है उसके इस लोकमें भी आत्मासे उत्पन्न हुआ अनुपम सुख प्राप्त होता है ॥१२४॥ सोना चांदी आदि धनके होनेसे कामका उद्रेक, माया, लोभ, क्रोध, असह्य मनका द्वेष, राग. चिन्ता, शोक.भय. आशा आदि सब विकार उत्पन्न होते हैं, झठ बोलना पड़ता है तथा उसके नाश होनेसे मनुष्योंको बड़ा भारी दुःख होता है, और मान भंग होता है । यही समझकर व्रत धारण करनेवालोंको अपना धर्म सिद्ध करनेके लिये काली सपिणीके समान इस धनको स्वप्नमें भी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥१२५-१२७।। इस नौंवी प्रतिमाको धारण करनेवाले व्रतियोंको वीतरागताको सूचित करनेवाले, वस्त्रोंको छोड़कर अन्य चिन्ता उत्पन्न करनेवाले, रोग उत्पन्न करनेवाले अधिक मूल्यके वस्त्र कभी ग्रहण नहीं करने चाहिये ॥१२८॥ व्रती मनुष्योंको अपनी सेवा चाकरी करनेके लिये अपने पासमें अव्रती मनुष्य कभी नहीं रखना चाहिये ॥१२९।। विद्वान् त्यागियोंको अपने रहनेके लिये अत्यन्त ममता उत्पन्न करनेवाला और महा हिंसा करनेवाला मठ आदि कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥१३०॥ इसी प्रकार व्रती मनुष्योंको अनेक जीवोंकी हिंसा करनेवाले हिंसाके पात्र, पाप बढ़ानेवाले और राग उत्पन्न करनेवाले गाय, घोड़ा आदि पशु भी नहीं रखने चाहिये ॥१३१।। संसारमें जो जो परिग्रह मनुष्योंके द्वारा निन्द्य गिने जाते हैं, और जो व्रतोंमें दोष उत्पन्न करनेवाले हैं वे सब परिग्रह विष मिले हुए अन्नके समान व्रतो लोगोंको छोड़ देने चाहिए ॥१३२।। जो मनुष्य लोभके कारण सोना, चाँदी आदि धनको छोड़ नहीं सकता वह पुरुष पुरुष नहीं नपुंसक है, ऐसा नपुंसक मनुष्य आगे चलकर कर्मरूपी सेनाको किस प्रकार नष्ट कर सकता है ।।१३३।। जो मनुष्य परिग्रहोंका त्याग किये विना ही मोक्षकी इच्छा करता है वह मूर्ख है। भला जो लंगड़ा मार्गमें गिरता पड़ता हुआ चलता है वह मेरुपर्वतको किस प्रकार उल्लंघन कर सकता है ।।१३४।। जो भाग्यहीन मनुष्य परिग्रहके साथसाथ मोक्षकी इच्छा करते हैं वे आकाशके फूलोंसे वन्ध्यापुत्रका मुकुट बनाना चाहते हैं ॥१३५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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