SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 452
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ४१९ असत्यादिसमुद्रं च गृहारम्भं सुदुस्त्यजम् । त्यजेत्सन्तोषतो योऽत्र गच्छेत्सोऽप्यव्ययं पदम् ॥ ११२ सर्वारम्भं परित्यज्य तपः स्वल्पं करोति यः । इहामुत्र भजेत्सोऽपि बृहत्सौख्यं त्रिलोकजम् ॥ ११३ आरम्भेन समं कुर्यात्तपो दुस्तरमेव यः । गजस्नानमिवेह स्यात्तस्य कर्मक्षयो न हि ॥ ११४ पापारम्भं त्यजेद्यस्तु व्रताय सर्वशक्तितः । प्राप्य षोडशमं नाकं क्रमाद्याति शिवालयम् ॥११५ मन्येऽहं सफलं जन्म तस्य येन विर्वाजतः । गृहारम्भो जिनैनिन्द्यस्तेन भूरपि भूषिता ॥ ११६ यो वर्जयेद्गृहारम्भं तस्य स्यात्पापसंवरः । पूर्वाघनिर्जरा मुक्तिरप्यायाति स्वयं च तम् ॥ ११७ इति ज्ञात्वा सदा त्याज्यः सर्वारम्भो व्रतान्वितैः । स्वशक्ति प्रकटीकृत्य स्वस्य स्वमुक्ति हेतवे ॥११८ विबुधजनविनिन्द्यं पापसन्तापखानि विषमनरकमार्ग तस्करं धर्मगेहे । सकलगुणवनाग्नि स्वर्गमोक्षैकशत्रुं निखिलमपि त्यज त्वं नित्यमारम्भमेव ॥११९ अखिलसुजनसेव्यं धर्मपीयूषकूपं दुरिततरुकुठारं नाकदानैकदक्षम् । सकलगुणसमुद्रं मुक्तिदं सौख्यधाम व्रतमपि भज सारं सर्वथारम्भमुक्तम् ॥१२० अष्टम प्रतिमां पूर्वं व्याख्याय नवम वराम् । वक्ष्येऽहं प्रतिमां मुक्त्यै त्यक्तसङ्गां सुपुण्यदाम् ॥ १२१ क्षेत्रवास्तुधनं धान्यं सेवकं च चतुष्पदम् । आसनं शयनं कुप्यं भाण्डं सर्वाशुभाकरम् ॥ १२२ धीरवीर चतुर मुनियोंके द्वारा त्याग करने योग्य है, झूठ चोरी आदि पापोंका सागर है और बड़ी कठिनता से त्याग किया जाता है। जो पुरुष सन्तोष धारण कर इसका त्याग करता है वह अवश्य ही मोक्षस्थानको प्राप्त करता है ॥११० - ११२ ।। जो मनुष्य सब तरहके आरम्भोंका त्यागकर थोड़ा भी तप करता है, वह इस लोक तथा परलोक दोनों लोकों में तीनों लोकोंमें उत्पन्न हुए समस्त महासुखोंको प्राप्त होता है ॥११३॥ जो पुरुष आरम्भोंके साथ-साथ तप करता है उसका वह तप करना हाथी के स्नानके समान व्यर्थ है उस तपसे उसके कर्म कभी नष्ट नहीं हो सकते ||११४|| जो पुरुष अपने व्रत पालन करनेके लिए अपनी सब शक्ति लगाकर पापरूप आरम्भोंका त्याग करता है वह सोलहवें स्वर्गके सुख भोगकर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ११५ ॥ जिसने समस्त पापोंकी निर्जरासे रहित ऐसे आरम्भका त्याग कर दिया है में उसीके जन्मको सफल मानता हूँ और यह पृथ्वी भी उससे भूषित होती है | ११६ || यह घर सम्बन्धी आरम्भ अत्यन्त निन्द्य है । जो इस आरम्भका त्याग करता है उसीके नवीन पापका संवर होता है, पूर्वबद्ध पापकर्मकी निर्जरा होती है और मुक्ति उसके समीप स्वयं आती है ॥ ११७ ॥ यही समझकर व्रती पुरुषों को स्वयं स्वर्गं मोक्ष प्राप्त करनेके लिए अपनी पूर्ण शक्तिको प्रगट कर सब तरहके आरम्भोंका सदाके लिए त्याग कर देना चाहिए ||११८|| यह आरम्भ विद्वानोंके द्वारा निन्द्य है, पाप और सन्तापकी खानि है, भयंकर नरकका मार्ग है, धर्मरूपी घरका चोर है, समस्त गुणोंके वनको जलानेके लिए अग्नि है और स्वर्ग मोक्षका एक अद्वितीय शत्रु है इसलिए हे भव्य ! तू इस सब तरहके आरम्भका सदा के लिए त्याग कर ॥ ११९ ॥ यह आरम्भ त्याग नामकी आठवीं प्रतिमाका व्रत समस्त सज्जनोंके द्वारा सेवा करने योग्य है, धर्मरूपी अमृतका कुँआ है, पापरूपी वृक्षके लिये कुठार है, स्वर्ग देनेके लिए अत्यन्त समर्थ है, सब गुणोंका समुद्र है, मुक्तिको देनेवाला है और सुखोंका घर है । इसलिए हे भव्य ! तू इस आरम्भ त्याग नामके व्रतको अर्थात् आठवीं प्रतिमाको अवश्य धारण कर ॥ १२० ॥ इस प्रकार आठवीं प्रतिमाका स्वरूप वर्णन कर अब मोक्ष प्राप्त करनेके लिए पुण्य बढ़ानेवाली परीग्रहत्याग नामकी नौवीं प्रतिमाको कहते हैं ॥ १२१ ॥ जो पुरुष क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, दास, पशु, आसन, शयन, कुप्य, भांड इन सब पाप बढ़ानेवाले दस प्रकारके परिग्रहोंमेंसे केवल वस्त्रोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy