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________________ ४१८ श्रावकाचार-संग्रह सर्वारम्भं त्यजेद्यस्तु षड्जीवादिविराधकम् । त्रिशुद्धया जायते तस्य प्रतिमा स्वष्टमी शुभा ॥९९ धर्मध्यानेन शास्त्रादिपठनेन सदा च यः । स्वकालं गमयेद्धीमान् सोऽग्रणी तिनां मतः ॥१०० आरम्भाज्जायते हिंसा प्राणिनां दुःखदायिका । तया सञ्जायते पापं चतुगंतिनिबन्धनम् ॥१०१ तेन संसारकान्तारे दुःखव्याघ्रादिसङ्कले। भ्रमत्येव न सन्देहो जीवो दुःखेन पूरितः ॥१०२ इति मत्वा सदारम्भं घोरं प्राघनिबन्धनम् । त्यक्त्वा धर्म भजेद्दक्षो हिंसात्यक्तं गुणाकरम् ॥१०३ पथिवीखननं नीरारम्भं वस्त्रादिधोवनम् । दीपादिज्वालनं निन्द्यं वातादिकरणं तथा ॥१०४ वनस्पत्यादिसंछेदं धान्यादिबीजमर्दनम् । द्वित्रीन्द्रियादिजन्तूनां बाधनं ताडनादिकम् ॥१०५ मनोवचनकायेन कारितादिभिरञ्जसा । नैव कुर्याद् व्रती नित्यं प्रारम्भपरिहानये ॥१०६ रथाद्यारोहणं निन्द्यं स्थूलजीवविघातकम् । प्राणान्तेऽपि न कर्तव्यं त्यक्तारम्भैः कदाचन ॥१०७ वाणिज्यादिमहारम्भं विवाहादिकमञ्जसा । गेहादिकरणे दक्षस्त्याज्यं च कृपया सदा ॥१०८ यत्किञ्चिच्च गृहारम्भं जन्तुहिंसाकरं त्रिधा । त्यक्त्वा धर्म चरेद्यस्तु तस्य स्याद्विशदं व्रतम् ॥१०९ चतुर्गतिकरं पापखानि श्वभ्रादिसाधकम् । स्वर्गगृहकपाटं च रोगक्लेशभयादिदम् ॥११० जीवघातकरं दुःखमूलं स्वस्य परस्य च । धर्मशत्रु परित्यक्तं दोरैर्मुनीश्वरैः ॥१११ कायसे छहों कायके जीवोंका नाश करनेवाले सब तरहके आरम्भोंका त्याग करता है उसके पुण्य बढ़ानेवाली आठवीं प्रतिमा होती है ॥९९॥ जो बुद्धिमान धर्मध्यान धारण कर और अनेक शास्त्रोंका पठनकर सदा अपना समय व्यतीत करता है वह व्रत पालन करनेवालोंमें सबसे मुख्य गिना जाता है ॥१००॥ आरम्भ करनेसे अनेक जीवोंको दुःख देनेवाली हिंसा होती है, उस हिंसासे चारों गतियोंका कारण ऐसा महापाप उत्पन्न होता है और उस पापसे अत्यन्त दु:खी हुआ वह जीव दुःखरूपी सिंह बाघोंसे भरे हुए इस संसाररूपी वनमें सदा परिभ्रमण किया करता है इसमें कोई सन्देह नहीं है ।।१०१-१०२।। यही समझ कर चतुर पुरुषोंको महापापका कारण ऐसे घोर आरम्भका त्यागकर हिंसासे सर्वथा रहित और अनेक गुणोंकी खानि ऐसे धर्मका सेवन करना चाहिए ॥१०३।। आरम्भ त्याग प्रतिमाको धारण करनेवाले धीरवीर व्रती पुरुषोंको अपने आरम्भका त्याग करने के लिये मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदनासे पृथ्वी खोदना, कपड़े धोना, दीपक मसाल आदिका जलाना, वायु करना, वनस्पतियोंको तोड़ना, काटना, छेदना, गेहूँ, जो आदि बीजोंको कूटना, पीसना, दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय पंचेन्द्रिय आदि जीवोंको बाधा पहुँचाना वा उनकी ताड़ना करना आदि निंद्य आरम्भोंका बहुत शीघ्र त्याग कर देना चाहिए ॥१०४-१०६|| आरम्भ त्याग प्रतिमा धारण करनेवाले व्रतियोंको प्राण नष्ट होनेपर भी स्थूल जीवोंकी हिंसा करनेवाले और निंद्य ऐसे रथ आदि सवारियोंपर चढ़कर कभी नहीं चलना चाहिए ॥१०७॥ आरम्भ त्यागी चतुर पुरुषोंको दया धारण कर व्यापार आदिके महारम्भ, विवाहादिक कार्य और घर बनाना आदि आरम्भके कार्योंका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये ॥१०८॥ जो पुरुष जीवोंकी हिंसा करनेवाले घर सम्बन्धी सब तरहके आरम्भोंका मन, वचन, कायसे त्याग कर धर्मसेवन करता है उसके आरम्भ त्याग नामका यह व्रत निर्मल रीतिसे पालन होता है ।।१०९|| यह घर सम्बन्धी आरम्भ चारों गतियोंमें परिभ्रमण करानेवाला है, पापको खानि है, नरकका मुख्य कारण है, स्वर्गरूपी घरको बन्द कर देनेके लिये किवाड़ है, रोग क्लेश, भय आदिको देनेवाला है, अनेक जीवोंका घातक है, अपने और दूसरोंके लिए दुःखकी जड़ है, धर्मका शत्रु है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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