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________________ श्रावकाचार-संग्रह चित्तं विनिजितं येन निःसङ्कल्पासिना बलात् । तस्य समोहितं सिद्धं सर्व मुक्त्यादि कारणम् ॥१४ ये हत्वा मानसं ध्यानखड्गेनेहाति निस्पृहाः । तिष्ठन्ति विगतारम्भा धन्यास्ते भुवनत्रये ॥१५ जितं स्वमानसं येन तेन चेन्द्रियसञ्चयम् । कर्मजालं महापुण्यं ननु प्राप्तं सुखाकरम् ॥१६ पापानुमतित्यागाच्च चक्रेशत्वं सुरेशताम् । अमुत्र तीर्थनाथत्वं प्राप्यते च व्रतान्वितैः ॥१७ जन्मेह सफलं तस्य मन्येऽहं येन संस्कृतम् । स्वचित्तं स्ववशे हत्वा सङ्कल्पादिकदम्बकम् ॥१८ किमत्र बहुनोक्तेन यैस्त्यक्तानुमतिस्त्रिधा। पूज्यास्ते महतां लोके परत्र विहितोद्यमैः ॥१९ सुगतिगमनमार्ग मुक्तिसोपानपङ्क्ति दुरितगहनर्वाह्न धर्मरत्नाविभाण्डम् । रहितसकलपापं संवतं कर्मशत्रुमनुमतिरहितं स्वस्यात्मशुद्धये भज त्वम् ॥२० इदानी सम्प्रवक्ष्येऽहमुद्दिष्टाहारवर्जनीम् । व्याख्याय प्रतिमा पूर्व दशमी धर्महेतवे ॥२१ गृहस्थः प्राप्य वैराग्यं देहभोगभवादिषु । त्यक्त्वा गृहं कुटुम्बं च प्रागाद्यो मुनिसन्निधिम् ॥२२ बाराध्य मुनिसत्पादौ शक्रभूपेन्द्रपूजितौ । गृहीत्वा क्षुल्लकी दीक्षां खण्डवस्त्रसमन्विताम् ॥२३ गुरुपावें स्थितो नित्यं सोऽत्ति भिक्षां परगृहात् । उद्दिष्टवजिताख्यैकां दशमों प्रतिमां भजेत् ॥२४ मस्तके मुण्डनं लोचः कर्तनं वा समाचरेत् । द्वित्रिभिर्वा चतुर्मासैर्वती सव्रतसंयुतः ॥२५ है ॥१३॥ किसी प्रकारका संकल्प न करनेरूप तलवारके बलसे जिसने अपना चित्त जीत लिया है, उसके मोक्षके कारणको प्राप्ति होना आदि सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं ॥१४॥ जो व्रती ध्यानरूपी तलवारसे अपने चंचल मनको वश कर तथा अत्यन्त निस्पह होकर समस्त आरम्भोंका त्याग कर रहते हैं, किसी में अपनी सम्मति नहीं देते वे मनुष्य तोन लोकोंमें धन्य गिने जाते हैं ।।१५।। जिसने अपना मन जीत लिया उसने समस्त इन्द्रियोंको जीत लिया और कर्मोके समूहको जीत लिया तथा सुखकी खानि ऐसा महापुण्य उसने प्राप्त कर लिया ॥१६॥ इस दशवी प्रतिमाको धारण करनेवाले व्रतियोंको पापरूप सम्मतिके त्याग कर देनेसे परलोकमें चक्रवर्ती, इन्द्र और तीर्थकर पदकी प्राप्ति होती है ॥१७॥ जिसने अपने मनके संकल्प विकल्पोंके समूहको नाश कर अपना चित्त वशमें कर लिया है मैं इस संसारमें उसीका जन्म सफल मानता हूँ ॥१८॥ बहुत कहनेसे क्या लाभ है, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि जिन्होंने अपना पूर्ण उद्योग कर मन, वचन, कायसे सम्मति देनेका त्याग कर दिया है वही मनुष्य परलोकमें पूज्य और महापुरुष होता है ॥१९॥ हे भव्य ! यह अनुमतित्याग व्रत शुभ गतियोंमें जानेका मार्ग है, मोक्ष महलकी सीढियोंकी पंक्ति है, पापरूपी वनको जला देनेके लिए अग्नि है, धर्मरूपो रत्नोंका पिटारा है, समस्त पापोंसे रहित है और कर्मोका शत्रु है इसलिये हे भव्य ! तू अपने अपने आत्माशुद्ध करनेके लिये इस अनुमति त्याग नामके व्रतको अवश्य धारण कर ॥२०॥ इस प्रकार दशवी प्रतिमाका वर्णन कर अब धर्मके लिए उद्दिष्टाहार त्याग नामकी ग्यारहवीं प्रतिमाका निरूपण करते हैं ॥२१॥ जो गृहस्थ संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त होकर तथा घर और कुटुम्बका त्याग कर मुनिराजके समीप जाता है, तथा वहाँ जाकर इन्द्र चक्रवर्ती बादि महापुरुषोंके द्वारा पूज्य ऐसे मुनिराजके चरणकमलोंका आराधन कर और खण्ड वस्त्र धारण कर क्षुल्लककी दीक्षा धारण करता है, सदा मुनिराजके समीप रहता है और भिक्षा भोजन करता है उसके उद्दिष्ट त्याग नामकी ग्यारहवीं प्रतिमा होती है ।।२२-२४॥ अपने व्रतोंको पालन करनेवाले क्षुल्लक श्रावकको दो तीन अथवा चार महीने बाद अपने मस्तकको मुडदा डालना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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